शुक्रवार, 18 जून 2021

Chatur Pandit short moral stories in hindi|चतुर पंडित|हिंदी में लघु नैतिक कहानियां

Chatur Pandit short moral stories in hindi|चतुर पंडित|हिंदी में लघु नैतिक कहानियां
Chatur Pandit short moral stories in hindi|चतुर पंडित|हिंदी में लघु नैतिक कहानियां

 चतुर पंडित

कितना रूपया?
पूरे सौ रूपये रोज

जानते हो इतना रूपया हमारे यहाँ दीवान जी को भी नहीं मिलता। इस बार पंडित ने अपना सिर झुका लिया। वह सोचकर बोला ‘‘राजन्! मैं सौ रूपये रोज ही लूँगा इससे कम नहीं।’’

दीवान ने पंडित को देखा। गोरा रंग, दुर्बल शरीर, मैले वस्त्र। सिर पर उट पटांग ढंग से बंधी पगड़ी। उसकी दशा उसकी दीनता बता रही थी। फिर भी दीवान को क्या सूझी कि उसने राजा से कहा, ‘महाराज! इसे सौ रूपयों मेें रख लीजिए। यह ब्राम्हण है तो दरिद्र पर जब वह सौ से कम पर मान ही नहीं रहा है तो इसके पीछे जरूर कोई कारण होगा।’

राजा को आश्चर्य हुआ। दूसरे दरबारी भी उसे और आश्चर्य से देखने लगे।

राजा ने सोचकर कहा, ‘दीवान जी! क्या यह अन्याय नहीं होगा कि हमारे पुराने दरबारी इतना रुपया नहीं पाते हैं और.........।

‘महाराज! इस पंडित का अपनी बात पर अडे़ रहना किसी विशेष बात की ओर संकेत करता है रख लीजिए इसे।

राजा ने दीवान की बात मान ली। उसे सौ रूपये दे दिए गए। पंडित अपने घर आया। उसने अपनी बेटी और पत्नी के सामने रूपये रख दिए। पत्नी की आँखें फट गई। पूछ बैठी, इतने रूपये कहाँ से लाए?

 सच्चा उत्तराधिकारी

पंडित ने मुस्करा कर कहा इस बार मैं अपनी बेटी रमा की बात पर अड़ा रहा। राजा को साफ-साफ कह दिया कि हर रोज सौ रूपये लूँगा। आखिर दीवान की सिफारिश पर उसने मेरी बात मान ली। अब हर रोज मुझे एक सौ रूपये मिलेंगे। अब हमारी दरिद्रता खत्म हो गई।

पत्नी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएं नाच उठीं। वह बोली, फिर तो जरूर कभी संकट आएगा। इतने सारे रूपये कोई यूं ही तो नहीं देता।

मनुष्य अपना स्वामी स्वयं

रमा ने हंसकर कहा, माँ! देने वाला तो भगवान है। जब वह देता है तो छप्पर फाड़कर देता है।’’

पंडित ने कहा ‘मेरी बेटी ठीक कहती है अरे! आज तक मैंने उसकी बात नहीं मानी तभी तो दुःख पा रहा हूँ।

रमा ने अपने पिता के अभिमान भरी आकृति की ओर देखा। फिर कहा, पिता जी! मैं आपसे कहना चाहूँगी कि आप विद्वान हैं। सिर्फ आप लौकिक व्यवहार नहीं जानते हैं। आपको पता ही है भाग्य और पुरुषार्थ का जोड़ा है, तभी चलता जीवन घोड़ा है। पिता मुस्कराया। समय बीतता गया।

पंडित हर रोज एक सौ रूपये लाता। रमा ने पहले तो जीवन की जरूरतों को पूरा किया। फिर उन रूपयों को परोपकार के कार्यों में लगाने लगी। वह गरीबों को खाना खिलाती, जंगल में रहने वाले पशुओं के लिए पानी की व्यव्स्थाएं कराती, उसने एक पाठशाला खुलवादी, वह उन रूपयों से हर एक की सहायता करती थी।

परोपकार का पौधा

उधर, दूसरे दरबानी जलने लगे। वे सदा सोचते कि दीवान की मूर्खता के कारण एक पोंगा पंडित रोज सौ रूपये ले जाता है। आखिर सौ रूपये लेने वाले पंडित की परीक्षा की घड़ी आ गई।

एक दिन राजा के दरबार में एक आदमी आया। उस आदमी ने कहा ‘‘राजन्! मैं राजा पराक्रम सिंह का दूत हूँ। हमारे राजा ने कहलाया है कि हमारी दो बातों का उत्तर दो। यदि वे सही होंगी तो वे अपना आधा राज्य आपको देंगे। नहीं तो आपका आधा राज्य लंेगे। यदि आपने उनकी बात नहीं मानी तो वे आप पर आक्रमण कर देंगे।

दूत की बात सुनकर राजा असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा कि यदि वह दूत की बात नहीं मानेगा तो व्यर्थ का रक्तपात होगा।

अतः वह बोला। आप अपनी बातें बताइये दूत ने ताली बजाई। चार नौकर एक पालकी लेकर आए। उन पालकियों में कुछ चीज ढंकी हुई रखी थी।

दूत के पास जाकर आवरण को हटाया। तीन संगमरमर की परियाँ थी। बहुत ही अनुपम और आकर्षक। एकदम एक सी! कोई अन्तर नहीं।

हीरा ने कान पकड़े

दूत ने उनकी ओर संकेत करके कहा ‘महाराज ये तीन परियाँ हैं। इन तीनों में अन्तर बताइये।

सारे लोग उन्हें देखने लगे पर उनकी समझ में नहीं आया कि इनमें अन्तर क्या है? तीनों एक ही लग रही हैं। दरबार में कोई भी अन्तर नहीं बता सका।

अचानक दीवान को पंडित का ध्यान आया। उन्होंने उसे बुलाया। सारे दरबारी भी प्रसन्न होकर बोले, हाँ, हाँ महाराज उस सौ रूपये लेने वाले पंडित को बुलाइए।

वे सब सोचने लगे कि आप पंडित का खेल खत्म ही समझो। पंडित आया। राजा ने उससे प्रश्न किया। पंडित ने उन परियों को देखा। बड़े गौर से देखा। इधर सदैव के पढ़ने विचारने और मनन करने से उसमें बुद्धि बढ़ गई थी। उससे अत्यन्त ही बारीकी से उन परियों की मूर्तियों को देखा।

उसने सोचा कि इन मूर्तियों में तो कोई अन्तर नहीं है, अब यदि अन्तर होगा तो कोई गुप्त होगा ऐसा सोचकर उसने कहा ‘महाराज! आप इन परियों को मंत्रणा गृह में भिजवा दें। मैं इनकी अकेले में जांचच पड़ताल करना चाहता हूँ। इस बीच में एक बार घर जाकर आता हूँ।

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राजा ने उसकी बात मान ली। पंडित सीधा अपने घर गया। उसने अपनी बेटी से सारी बात बताई उससे सलाह मशवरा किया। रमा ने सोचकर कहा ‘पिता जी! आपका सोचना ठीक है। आप उसके मुँह और कान में रस्सी डालें। उससे ही आप जान पाएंगे कि क्या अन्तर है। पंडित मंत्रणा कक्ष में आया। उसने रस्सी को एक मूर्ति के कान में डाल दिया। रस्सी दूसरे कान से निकल गई। दूसरी मूर्ति के कान में रस्सी डालने पर वह मुँह में से निकल गई। तीसरी की रस्सी कान से पेट में चली गई।

पंडित ने परियों की मूर्तियों को दरबार में भिजवा दिया। फिर वह अपनी बेटी रमा के पास गया। उससे बातचीत की। फिर दरबार मंे आया।

उसने अपने राजा को सिर झुका कर कहा ‘महाराज! इन मुर्तियों में बाहर से कोई अन्तर नहीं दिखाई पड़ता है पर भीतर से इनमें बड़ा अन्तर है।

 दो देवियाँ

पहली परी की मूर्ति के कानों के छेद आर-पार है। इसका मतलब है कि यह परी एक कान से बात सुनती है और दूसरी कान से निकाल देती है। दूसरी परी कान से बात सुनती है मुँह से निकाल देती है। तीसरी परी कान से बात सुनती है और उसे पेट में डालकर सदा-सदा के लिए गुप्त रख लेती है। यही श्रेष्ठ परी है।

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पंडित का उत्तर सुनकर दूत हर्ष से भर गया। उसने कहा ‘वाह राजा वाह। आपके पंडित ने सही उत्तर दिया है। अब दूत ने कहा ‘मेरी दूसरी बात यह है राजन्! किसी मृत से जीवित रहने वाला और किसी जीवित रहने से जीवित रहने वाला व्यक्ति कौन हो सकता है।

सारे दरबारी प्रश्न सुनकर भौचक्के रह गए। अपने अपने दिमाग दौड़ाने लगे पर उन्हेें कोई उत्तर नहीं सूझा।

पंडित ने इसका उत्तर सोच लिया। फिर भी आश्वस्त होने के लिए वह अपने राजा की आज्ञा लेकर बेटी रमा के पास गया।

उससे सलाह मशवरा किया। उसकी बेटी ने अपने पिता को आदर भाव से देखकर कहा पिता जी मैंने कहा न कि आप बहुत योग्य हैं। आपका उत्तर बिलकुल सही ंहै। आप बेधड़क राजा दरबार में जाकर उत्तर दीजिए। भगवान आपकी सहायता करेगा।

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पंडित वापस दरबार में आया। राजा और सारे दरबारी उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

पंडित ने सबकी ओर देखकर कहा ‘महाराज पराक्रम सिंह के दूत ने जो प्रश्न किया है उसका उत्तर यह है कि मृत से जीवित रहने वाले व्यक्ति मैं हूँ अर्थात पंडित। क्योंकि पंडित ही मरने वाले के दाह संस्कार से लेकर श्राद्ध कर्म तक के कार्य कराके दक्षिणा लेता है और अपने को जीवित रखता है और जीवित को जीवित वैद्य रखता है, वैद्य मृत्यु को ओर जाने वाले बीमारों को जीवित रखता है और अपना पेट भरता है।

उसके उत्तर पर दूत और अन्य दरबारियों ने वाह-वाह की। राजा को आधा राज्य मिल गया।

पंडित की इज्जत बढ़ गई। पर राजा को एक संदेश सदा सताता रहता था कि पंडित बीच-बीच में घर क्यों गया था।

एक दिन उसने पूछा तो पंडित ने अपनी बेटी के बारे में बताया।

राजा ने उसकी बेटी रमा को अपने महल में बुलाया बेटी, तुमने यह ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया है?

उसने मुस्कराकर कहा ‘महाराज, मैंने यह ज्ञान विद्या से पाया। मेरे पिता जी बहुत ही विद्वान हैं। उन्होंने शास्त्रोें का बहुत अध्ययन किया है। उन्होंने मुझे भी बेटों की तरह समस्त शास्त्र पढ़ाए जबकि ब्रम्हण समाज स्त्री जाति को पढ़ने का विरोधी था। उन्होंने अपने परिवार और समाज की परवाह न करके मुझे वेदों व शास्त्रों का ज्ञान कराया। साथ ही लोक जीवन, साहित्य व समाज का भी ज्ञान कराया। यह उन्हीं की कृपा का फल है। महाराज! मेरे पिता सीधे-साधे हैं। उनमें आत्म विश्वास की कमी थी। वे जीवन भर अपने सीधे पन से दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। इस बार उन्होंने मेरी सलाह मानी और वे सफल हो गए।

‘‘मुझे तुम पर गर्व है कोई आज्ञा करो बेटी।

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रमा ने नम्रता से कहा- महाराज! मैं तो आपको अनुरोध ही कर सकती हूँ। मैं चाहती हूँ कि हमारे राज्य मेें बेटो की तरह बेटियां भी शिक्षा प्राप्त करें। महाराज! जहाँ नारी अज्ञान के अंधकार में भटकती है वहाँ कभी भी सुख शान्ति नहीं आती।

महाराज ने अपने राज्य में नारी शिक्षा को बढ़ावा दिया। रमा को उसकी व्यवस्था सौंप दी। पंडित राज पंडित के पद पर रहकर जीवन यापन करने लगा।


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