Do Deviyaan Hindi Story- दो देवियाँ Hindi kahaniyan |
दो देवियाँ
शिलापुर राज्य की सीमा के निकटवर्ती वन में दो मंदिर थे। उनमें से एक मंदिर में प्रियाम्बा नाम की देवी की प्रतिष्ठा थी और दूसरे मंदिर में जगदम्बा की।
प्रियाम्बा देवी में यह शक्ति थी कि वह प्रतिदिन अपने पास आने वाले भक्तों में से केवल दो भक्तों की ही कामना को पूर्ण कर सकती थी, जबकि जगदम्बा प्रतिदिन केवल एक भक्त की कामना को ही पूर्ण कर सकती थी।
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कामनाओं के अधिक फलीभूत होेने के कारण ही प्रियाम्बा का मंदिर सदा भक्तों से भरा रहता था। पर जगदाम्बा के मंदिर में भक्तोें की भीड़ बहुत अधिक नहीं होती थी। इस कारण प्रियाम्बा के अन्दर अहंकार घर कर गया था।
परोपकार का पौधा
कभी रात्रि के समय यदि प्रियाम्बा की जगदाम्बा से भेंट हो जाती, तो वह बडे़ गर्व के साथ कहती, ‘‘जगदा, देखो मैं कितनी महिमाशाली हूँ! तुम्हें देखकर तो मुझे बड़ी दया आती है। मेरा मन्दिर भक्तों से शोभायमान रहता है। पर तुम्हारा मंदिर तो कई बार सूनसान रहता है। तुम्हें कितना दुख होता होगा?’’
प्रियाम्बा की बात के उत्तर में जगदाम्बा शांतिपूर्वक कहती, ‘‘प्रियाम्बा, इसमें दुखी होने के क्या बात है? हम दोनों ही तो भक्तों का हित और कल्याण चाहती है।’’
जगदाम्बा का यह उत्तर प्रियाम्बा को अत्यन्त निराशाजनक प्रतीत होता। उसके अहंकार की तृप्ति न होती। वह तो चाहती थी कि जगदाम्बा उसकी प्रशंसा करें और अपने भाग्य का रोना रोये। पर यहाँ तो बात बहुत ही उलटी थी।
एक दिन एक विशेष घटना घटी। शिलापुरी के राजा शरदचन्द्र घोड़े पर सवार होकर अकेले ही प्रियाम्बा के मंदिर में आये। उन्होंने मंदिर के सामने अपना घोड़ा रोका और उतरकर मंदिर के अन्दर गये। राजा शरदचंद्र ने प्रियाम्बा की प्रतिमा के सामने प्रणाम करके कहा, ‘‘देवि, मैं तुम्हारी महिमा से भलीभाँति परिचित हूँ।
मेरी एक कामना है। मैं पड़ोसी राजा सत्यपाल पर शीघ्र ही आक्रमण करूँगी। उस युद्ध में धन-जन की चाहे कितनी भी बड़ी हानि क्यों न हो, मुझे विजयश्री चाहिए। माता, आप मुझे जीत का आशीर्वाद दो।’’
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इस घटना के कुछ देर बार ब्रम्हरूद्र नाम का एक लुटेरा मंदिर में आया। उसने प्रियाम्बा देवी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके निवेदन किया, ‘‘हे महिमाशालिनी अम्बा, शिलापुरी के एक धनवान सेठ के घर में विवाह का उत्सव है। मैं वहाँ अपने अनुचरों के साथ जाऊँगा और वहाँ के सब लोगों को लूटूँगा। मुझे इस काम में सफलता मिले, यह वर देना!’’ इस प्रकार अपनी कामना प्रकट करके लुटेरा ब्रम्हरूद्र भी चला गया।
फिर कुछ देर रक्तभैरव नाम का एक राक्षस मंदिर में आया। वह पास के घने वन में रहता था। उसने प्रियाम्बा देवी से निवेदन किया, ‘‘देवि अम्बा, चार दिन से नरमाँस न पाने के कारण मैं भूख से तड़प रहा हूँ।
इसलिए मुझ पर कुछ ऐसी कृपा करो कि मुझे चार मनुष्य तत्काल आहार के रूप में प्राप्त हो जायें और इसके बाद भी प्रतिदिन मुझे नरमाँस प्राप्त होता रहे।’’ इस प्रकार विनती करके वह राक्षस भी चला गया।
दुष्टरानी और छोटा भाई
देवी प्रियाम्बा ने राजा, डाकू और राक्षस तीनों की प्रार्थनाएँ क्रमशः सुनी। देवी ने समझ लिया कि इस तीनों की कामनाएँ ही अंधी और अन्यायपूर्ण हैं। देवी प्रियाम्बा ने निश्चय कर लिया कि इन तीनों की कामनाओं को पूर्ण नहीं किया जायेगा। देवी अपने मंदिर में पूरे दिन प्रतीक्षा करती रही कि कुछ और भक्त आये और अपनी कामना का निवेदन करें। पर अत्यन्त आश्चर्य की बात यह हुई कि उस दिन उन तीनों के अलावा अन्य कोई भक्त नहीं आया। देवी प्रियाम्बा के सामने जटिल समस्या उत्पन्न हो गयी।
देवी में विद्यमान शक्ति का यह नियम था कि प्रतिदिन दो भक्तों की कामनाओं की पूर्ति अवश्य करनी है। ऐसा न होने पर देवी की शक्ति का लोप हो जायेगी। राजा, डाकू और राक्षस की कामनाओं को पूर्ण करना अधर्म है और अन्याय था। देवी नहीं चाहती थी कि उससे ऐसा अधम काम हो, पर वह अपनी शक्ति से भी वंचित नहीं होना चाहती थी।
प्रियाम्बा समस्या को सुलझाने का जितना अधिक प्रयत्न करती, समस्या उतनी ही जटिल हो जाती। ऐसी स्थिति में उसे जगदाम्बा का स्मरण आया। उस रात वह जगदाम्बा से मिलकर बोली, ‘‘जगदाम्बा, मेरे सामने एक जटिल समस्या उत्पन्न हो गयी है। इसे सुलझाने का कोई उपाय बताओ, इसीलिए मैं तुम्हारे पास आयी हूँ।’’
‘‘कैसी जटिल समस्या?’’ जगदाम्बा ने उससे पूछा।
साधु का सच
प्रियाम्बा ने अपने पास आये राजा, डाकू और राक्षस की कामनाएँ सुनाकर कहा, ‘‘जगदाम्बा, इन तीनों की ही कामनाएं अन्य लोगों के लिए हानिकारक हैं। मैं उन्हें पूरा करना नहीं चाहती। तुम जानती ही हो, यदि मैं प्रतिदिन दो भक्तों की कामनाओं को पूरा न करूँ, तो मेरी शक्ति का लोप हो जायेगा।
पर आज सबसे बड़े दुख और आश्चर्य की बात तो यह हुई कि मेरे पास आज इन तीनों के अलावा और कोई नहीं आया। अब स्थिति यह है कि या तो मैं उनकी कामनाओं को पूर्ण करूँ या अपनी शक्ति खो दूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ?’’
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सारा वृतान्त सुनकर जगदाम्बा बोली, ‘‘ प्रिया, तुम चिन्ता न करो! जैसा मैं कहती हूँ वैसा करो! तुम्हें उन तीनों की कामनाओं की पूूर्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी, तुम्हारी महिमाओं का, और तुम्हारी शक्ति का नाश नहीं होगा।’’
जगदाम्बा की बात सुनकर प्रियाम्बा विस्मित हो उठी। उसने पूछा, ‘‘जगदाम्बा, लेकिन यह कैसे संभव है?’’
‘‘सुनो, प्रिया! तुम उनकी कामनाओं की पूर्ति न करो। प्रकट ही है कि इस प्रकार तुम्हारी शक्ति का लोप हो जायेगा। तदुपरान्त तुम मेरे पास आकर मुझसे कामना करना कि तुम्हारी शक्ति तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाये। तुम मेरी शक्ति के विषय में जानती ही हो कि मैं प्रतिदिन एक व्यक्ति की कामना पूर्ति कर सकती हूँ। मैं तुम्हारी खोयी हुई शक्ति को तुम्हें पुनः वापस दिला दूँगी।’’ जगदम्बा ने समझाया।
जगदाम्बा का उत्तर सुनकर प्रियाम्बा को एक नई चिंता ने आ घेरा। उसने अनेक अवसरों पर जगदाम्बा के सामने अपने बड़प्पन की प्रशंसा की थी और उसे छोटा दिखाने की प्रयत्न किया था। इस समय यदि वह उन तीन में से दो व्यक्तियों की कामना की पूर्ति नहीं करती है तो वह शक्तिहीन हो जायगी।
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ऐसी स्थिति में यह भी संभव है कि जगदाम्बा के हृदय में प्रतिरोध की भावना जग जाये और वह ईष्र्यावश उसकी कामना की पूर्ति न करे। तब उसकी क्या दशा होगी? जब भक्त उसे शक्ति और महिमा-विहीन समझेंगे तो वे उसके मंदिर में आना छोड़ देंगे और जगदाम्बा को ही अपनी इष्टदेवी मान लेंगे। तब उसे कितनी व्यथा होगी? वह अपने पुराने वैभव को याद कर कितना तड़पेगी?
प्रियाम्बा कुछ देर तक इसी प्रकार के सोच विचार में डूबी रही। इसके बाद उसने अपने मन में कोई निर्णय किया और दृढ़तापूर्वक मन ही मन बोली, ‘‘मेरी शक्ति रहे या जाये, किन्तु मेरे पास आये राजा, डाकू, और राक्षस की कामनाएँ निष्फल हो जायें।’’
दूसरे ही क्षण प्रियाम्बा के शरीर से शक्ति तिरोहित हो गयी। उसका मुखमण्डल तेजविहीन हो गया, शरीर की शोभा मलिन हो गयी।
प्रियाम्बा ने समझ लिया कि अब वह पूरी तरह शक्तिविहीन है। उसने हाथ जोड़कर बड़े विनम्र भाव से जगदाम्बा से कहा, ‘‘जगदाम्बा देवि, मुझे मेरी खोयी हुई शक्ति प्रदान करो।’’
‘‘तथास्तु!’’ जगदम्बा ने आशीर्वाद दिया।
दूसरे ही क्षण प्रियाम्बा का मुख-मण्डल दिव्य तेज से दमक उठा। बेताल ने यह कहानी सुनाकर कहा, ‘‘राजन, प्रियाम्बा में जगदाम्बा से अधिक शक्ति अवश्य थी, पर जगदाम्बा के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त अहंकारपूर्ण एवं क्षुद्र था। जगदाम्बा ने पुनः उसे शक्तिसंपन्न बना दिया। ऐसा उसने किस प्रभाव के कारण किया, यदि इस संदेह का समाधान आप जानकर भी न करेंगे तो आपका सिर फूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा।’’
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तब विक्रमादित्य ने उत्तर दिया, ‘‘यह सत्य है कि प्रियाम्बा में पहले अंहकार था और वह जगदाम्बा के साथ क्षुद्र व्यवहार भी करती थी। पर जब उसने अनुभव किया कि तीन दुष्ट और स्वार्थी लोगों ने उसके सामने जो कामनाएँ रखी हैं, वे दूसरों की विपदा और विनाश का कारण हैं, तो उसका हृदय परिवर्तित हो गया। वह अहंकारिणी अवश्य थी, पर उसमें सद्-असद् का विवेक भी था।
उन तीनों में से किन्हीं दो की कामनाओं की पूर्ति न करने पर उसकी शक्ति का नाश हो जायेगा, वह अच्छी तरह जानती थी। फिर भी वह इस बलिदान के लिए तत्पर हो गयी। यह त्याग का कोई निस्वार्थी एवं विशाल हृदय व्यक्ति ही कर सकता है। इस घटना से प्रियाम्बा के गुणों को प्रकाश मिल गया।
उधर जगदाम्बा स्वभाव से ही नम्र, मधुर और प्रेममयी थी। अपनी ही श्रेणी की एक देवी की सहायता करने में उसकी कोई हानि नहीं थी। जगदाम्बा का कार्य त्याग की भावना से प्र्रेरित नहीं, उसके हृदय की उदारता का परिचायक हैं यहाँ परस्पर के प्रभाव का प्रश्न नहीं हैं, सद्भावना का प्रश्न है। प्रियाम्बा ने जो कुछ किया, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है।’’
राजा विक्रमादित्य के इस प्रकार मौन होते ही बेताल शव के साथ अदृश्य होकर पेड़ पर जा बैठा।
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