सोमवार, 21 जून 2021

Top 10+ Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए

Hindi Story to read online|Story Read in Hindi-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए

Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए
Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए

 दो सगे भाई

                 एक वृक्ष पर एक ही माँ से पैदा हुए दो तोते रहते थे। दोनों रूप, रंग में एक समान दिखाई पड़ते थे। उद्यपि दोनों के नाम पृथक-पृथक थे, पर रूप और रंग में समान होने के कारण उन्हें पहचानने में अधिक कठिनाई होती थी।

                 एक बार इतने जोर से आँधी आई कि वृक्ष की जड़ें तक हिल गई। ऐसा लगने लगा कि वृक्ष उखड़कर गिर पड़ेगा। दोनों तोते व्याकुल हो उठे। आँधी में उड़ पड़े। आँधी के कारण दोनों एक-दूसरे से बिछुड़ गए। एक तो चोरों की बस्ती में जाकर गिरा और दूसरा पहाड़ के नीचे ऋषियों के आश्रम में जाकर गिरा। जो चोरों की बस्ती में गिरा था, वह तो चोरों की बस्ती में रहने लगा और जो ऋषियों के आश्रम में जा गिरा था वह ऋषियों के आश्रम में रहने लगा। दोनों को एक-दूसरे का पता ठिकाना ज्ञात था।

                 धीरे-धीरे कई वर्ष बीत गए। एक दिन वाराणसी का राजा रथ पर सवार होकर शिकार के लिए निकला। जब वह थक गया तो चोरों की बस्ती के पास एक सरोवर के किनारे जाकर आराम करने लगा। वहाँ कोई नहीं था। केवल इधर-उधर कुछ वृक्ष खड़े थे। राजा की नींद सी आ रही थी किन्तु किसी की कर्कश आवाज सुनकर उसकी नींद टूट गई। वह कर्कश आवाज एक तोते की थी जो एक वृक्ष की डाल से बोल रहा था। राजा बड़े ध्यान से तोते की आवाज सुनने लगा। वह मनुष्य के समान ही बोल रहा था। अरे कोई है इस आदमी के पास बहुत सा धन है। यह गले में मोतियों और हीरों की माला पहने हुए है। यह सोया हुआ है। इसकी गर्दन दबाकर मोतियों की माला निकाल लो और लाश को झाड़ी में गाड़ दो। किसी को पता नहीं चल सकेगा।

                 तोते को मनुष्य की तरह बोलते देखकर राजा डर गया। वह उठकर बैठ गया और मन ही मन सोचने लगा कि यह जगह तो बड़ी डरावनी है क्योंकि यहाँ तोता भी मनुष्य की तरह बोलता है और जान से मार डालने की बात करता है। अतः यहाँ से चल देना ही ठीक होगा। राजा उठा और अपने रथ पर बैठकर आगे की ओर चल पड़ा। रथ जब चलने लगा तो तोता पुनः कर्कश आवाज में बोला- ‘‘अरे कोई है, यह तो भाग रहा है। इसे पकड़ लो।  इसके गले में मोतियों और हीरों की माला है। इसकी हत्या करके गले से मोतियों और हीरो की माला निकाल लो।’’

                 राजा ने तोते की इस आवाज को भी सुना। उसके मन का डर और भी अधिक बढ़ गया। वह तेजी के साथ घोड़ों को दौड़ाता हुआ दूर तक निकल गया। राजा रथ को दौड़ाता हुआ पर्वत के नीचे ऋषियों के आश्रम में गया। किन्तु आश्रम मेें सन्नाटा छाया हुआ था। सभी ऋषि और मुनि भिक्षाटन के लिए बाहर गए हुए थे। रथ से उतरकर राजा चकित विस्मित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा। अभी वह देख ही रहा था कि किसी की कोमल आवाज उसके कानों में पड़ी। वह आवाज एक तोते की थी जो वृक्ष की डाल पर बैठा हुआ था। 

                    तोता राजा को देखकर कह रहा था- ‘‘आइए राजन्! बैठिए सभी ऋषि और मुनि भिक्षाटन के लिए गए हैं।’’ आश्रम में शीतल जल मौजूद है। प्यास लगी हो तो ठण्डा पानी पीजिए और यदि भूख लगी हो तो फल खाइए। आश्रम में फल भी मौजूद हैं।

राजा चकित दृष्टि से वृक्ष की डाल पर बैठे तोते को देखने लगा। तोते का रंग रूप बिलकुल वैसा ही था जैसा चोरों की बस्ती के पास रहने वाले तोते का था। राजा तोते की ओर देख रहा था कि तोता पुनः बोल उठा- ‘राजन्! निश्चिंत होकर आराम कीजिए। यह ऋषियों का आश्रम है। यहाँ आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।’’

                 राजा सोचने लगा कि अवश्य आराम करूँगा पर एक बात पूछ बैठा- ‘‘यहाँ से कुछ दूर एक सरोवर के किनारे एक वृक्ष की डाल पर भी एक तोता बैठा हुआ था। वह रंगरूप में बिलकुल तुम्हारे समान था किन्तु उसमें तुम्हारे समान गुण नहीं थे। तुम तो मृदुल वाणी बोल रहे हो पर उसकी वाणी बड़ी कठोर थी।’’ तुम प्रेम और सेवा की बात कर रहे हो, किन्तु वह जान से मार डालने और लूटने की बातकर रहा था। क्या तुम उसे जानते हो? आश्चर्य है, वह बिलकुल तुम्हारी ही शक्ल का था।

                 तोते ने उत्तर दिया- ‘‘हाँ राजन्! मैं उसे जानता हूँ।’’ वह मेरा सगा भाई है। हम दोनोें एक ही वृक्ष पर रहते थे पर प्रचण्ड आंधी के झकोरों में पड़ने के कारण बिछुड़ गए। वह तो चोरों की बस्ती में जा गिरा और मैं ऋषियों के आश्रम के पास आ गिरा था। फलतः वह चोरों की बस्ती में रहने लगा और मैं ऋषियों के आश्रम में रहने लगा। चोरों की बस्ती में रहने के कारण उसने चोरों की बातें सीख लीं। चोर दिन रात हत्या और लूटपाट की बात करते रहते हैं।

                 वह चोरों के मुँह से जो कुछ सुनता है, उसे याद कर लेता है और जब किसी को देखता है तो उसे दुहराने लगता है। इधर ऋषियों के आश्रम में रहने के कारण मैंने ऋषियों की बातेें सीख ली हैं। अतिथियों के आने पर ऋषिगण जिस प्रकार प्रेम से बोलते हैं, उसी प्रकार मैं भी बोलता हूँ। जो जिस तरह की संगति में रहता है, उसका प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है। संगति के ही प्रभाव के कारण हम दोनों भाइयों में अलग-अलग गुण आ गए हैं।

                 तोते की बात सुनकर राजा के मुँह से अपने आप ही निकल पड़ा - ‘‘ संगति का प्रभाव अनिवार्य रूप से हृदय पर पड़ता है। अतः हमें अच्छी संगति करनी चाहिए।’’

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अंधा और कुबड़ा

                 किसी गाँव में दो मित्र रहते थे। एक अंधा था दूसरा कुबड़ा। एक साल उस गाँव में अकाल पड़ा। खाने-पीने की तकलीफ होने लगी। आखिर दोनों मित्रों ने कमाई करने के लिए परदेश जाने का निश्चय किया। कुबड़ा अंधे के कंधे पर बैठ गया और रास्ता बताने लगा।

                 चलते-चलते रास्ते में कुबड़े ने खेत की मेड़ पर चरते हुए गधों का एक झुण्ड देखा। उसने कहा कि भैया यहाँ गधे चर रहे हैं पर उनका चरवाहा कहीं दिखाई नहीं देता। अंधे ने कहा - ‘‘तो तुम एक गधे को पकड़ लाओ।’’ इसके पश्चात् दोनों मित्र गधे पर बैठ गए। कुछ देर पश्चात् रास्ते में एक झोपड़ी दिखाई दी तो कुबड़े ने अंधे से कहा कि दोस्त यहाँ झोपड़ी के बाहर एक बुढ़िया ऊँघ रही है और पास में एक सूप पड़ा है। अंधे ने कहा कि देखते क्या हो उठा लो वह सूप।

                 कुबड़े ने सूप कब्जे में कर लिया। चलते-चलते रास्ते में एक खेत आया। कुबड़े ने बताया कि यहाँ खेत में हल और बैल दोनों हैं पर किसान कहीं दिखाई नहीं देता। अंधा बोला कि ठीक है तुम हल का लोहे का फाल ले आओ। कुबड़ा हल का नोंकदार लोहे का फाल ले आया। थोड़ी दूर चले थे कि कुबड़े को एक कुआँ दिखाई दिया। उसने अंधे से कहा कि मित्र यहाँ कुएँ पर बाल्टी और रस्सी पड़ी है, पर पानी खींचने वाला गायब है। अंधे ने कहा कि तुम बाल्टी की रस्सी खोलकर ले आओ। कुबड़े ने अंधे से कहा कि रात घिर आई है अब क्या करें? 

                 अंधा बोला कि जरा आसपास देखों यहाँ किसी का घर नजर आता है क्या? कुबड़े ने चारों ओर देखा। थोड़ी दूर पर एक भव्य महल दिखाई दिया। दोनों मित्र उस महल के पास गए महल खाली था। अंधे ने कहा कि चलो आज की रात यही ठहरेंगे। महल का दरवाजा बंद करके दोनों मित्र एक कमरे में सो गए।

                 आधी रात गए बाहर बड़ा कोलाहल सुनाई दिया। चीख पुकार मचाने वाला एक राक्षस का परिवार था जो उस महल में रहता था और आधी रात को शिकार करके लौटा था। आवाजें सुनकर अंधे और कुबड़े की नींद खुल गई। खिड़कियों, दरवाजों को बंद देखकर राक्षस परिवार को बड़ा आश्चर्य हुआ। जरूर कोई महल में छिपकर बैठा है। यह सोचकर एक राक्षस ने बड़े जोर से आवाज दी कि हमारे महल में कौन है? 

                 कुबड़ा जवाब देने ही वाला था कि अंधे ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया और स्वयं अकड़कर बोला कि तुम कौन हो? राक्षस ने उत्तर दिया कि हम तो राक्षस हैं। इस पर अंधे ने झट कहा कि हम तो राक्षस के दादाजी हैं। राक्षस विचार में पड़ गया। ये भला कौन हो सकता हैं? राक्षस का भी दादाजी। राक्षसों के सरदार ने कहा कि ठीक हैं यदि आप हमारे दादाजी हैं तो हमसे भी अधिक शक्तिशाली होंगे। जरा अपने बाल तो दिखाओ। अंधे ने रस्सी बाहर फेंकी। राक्षसों ने इतने मोटे और लम्बे बाल अपनी जिन्दगी में कभी नहीं देखे थे।

                 वे सब घबरा गए। अपनी शंका का समाधान करने की दृष्टि से राक्षस ने फिर पूछा कि तुम्हारे कान कैसे हैं? अंधे ने तुरन्त सूप बाहर फेंका। राक्षस तो इतना बड़ा कान देखकर आश्चर्य में पड़ गया। सरदार राक्षस ने फिर पूछा कि राक्षस के दादा जी आपके दाँत तो लोहे के चने चबाने लायक होंगे। 

                 अंधे ने उसी समय लोहे का फाल बाहर फेंका। उसे देखकर तो राक्षसों के हाथों के तोते उड़ गए। हाय! जिनके दाँत इतने मजबूत और बड़े हैं तो फिर वे दादा जी कैसे होंगे? जरूर बड़े खतरनाक होंगे। अंतिम बार परीक्षा की दृष्टि से राक्षस ने कहा कि यदि आप हमारे दादा जी हैं तो आपकी आवाज इतनी पतनी क्यों हैं अंधे ने महल के अंदर से कहा कि तुम्हारे कानों के परदे न फट जाएँ, इसीलिए हम धीरे-धीरे बोल रहे हैं। 

                 यदि तुम्हें हमारी सच्ची आवाज ही सुनना है तो लो सुनो.. ऐसा कहकर अंधे ने गधे के कानों को जोर से मरोड़ा। बस फिर क्या था। गधा लगा अपना राग अलापने.. ढेंचू....ढेंचू...। बाहर खड़े राक्षसों की तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे सब दुम दबाकर लगे भागने। किसी ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। अंधे और कुबड़े ने संतोष की सांस ली।

                 दिन चढ़ा तो वे लोग भोजन बनाने की तैयारी करने लगे। राक्षस की अपार धन दौलत को देखकर कुबड़े के मन में पाप का कीड़ा कुल बुलाने लगा। वह अंधे को मारकर सारी सम्पत्ति हड़पना चाहता था। इसी उद्देश्य से उसने अंधे के लिए जहरीला सांप पकाया। बीच में पानी की जरूरत होने पर वह अंधे को चूल्हे के पास बैठाकर खुद पानी लेने चला गया। उसे क्या पता था कि हांडी में एक जहरीला सांप पकाया जा रहा है, किन्तु तीव्र जहरीले धुएँ के कारण ही थोड़ी देर में उसे आँखों से दिखाई देने लगा।

उसने देखा हांडी में एक जहीला साप पकाया जा रहा है। अब वह समझ गया कि यह सब कुबड़े का चाल होगी जो मुझे मारने की नीयत से जहरीला सांप पका रहा था। जैसे ही कुबड़ा पानी लेकर आया, अंधे ने उसे लकड़ी से मारना शुरू कर दिया। पर यह क्या? पिटाई होेने पर कुबड़े का शरीर सीधा हो गया। 

                 उसका कूबड़ बैठ गया। पल भर में दोनों मित्र सारा माजरा समझ गए कि एक-दूसरे को मारने के चक्कर में दोनों के शरीर ठीक हो गये हैं। अब तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसी दिन से वे एक दूसरे के सच्चे मित्र बन गए तथा सुखपूर्वक उस भव्य महल में आराम से जिन्दगी गुजारने लगे।

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बंदर की चतुराई

                 एक बार कृष्णा नदी में भयंकर बाढ आई। नदी में आई इस अचानक बाढ़ के कारण नदी के किनारे स्थिति वन के अनेक पशु-पक्षी पानी के तेज बहाव में बह गये। कुछ पशु-पक्षियों ने दूर भागकर अपने प्राणों की रक्षा की तो कुछ पशु-पक्षी नदी के बीच एवम् किनारे स्थिति चट्टानों पर कई दिनों तक भूखे प्यासे सिमटे पड़े रहे। कृष्णा नदी की ऐसी जान लेवा बाढ़ की किसी को कल्पना तक न थी। 

                 कृष्णा नदी की यह बाढ़ कई दिनों तक अपना आतंक फैलाए रही। कुछ दिनों बाद बारिश कम होने के कारण नदी का जल स्तर कम होने लगा तो आसपास अनेक पशु-पक्षी मृत पड़े दिखाई देने लगे। जो लोग जीवित बचे थे उनमें एक बंदर का भी अपना परिवार था।

                 बंदर और उसके तीन बच्चे इस नदी की बाढ़ में किसी तरह कलेजे पर हाथ रखकर भूखे प्यासे एक ऊँचे टीले पर बैठे पानी कम होने की बात जोहते रहे। पानी कम होते ही नदी में रहने वाले कुछ जीव खुली हवा में सांस लेने के लिए ऊपर आने लगे। इन्हीं में एक घड़ियाल भी था। 

                 घड़ियाल ने देखा कि नदी के समीप के टीले पर एक बंदर अपने नन्हें बच्चों के साथ भूखा प्यासा बैठा हुआ है। शिकार को इतने पास देखकर उसके मुँह में पानी आ गया और वह बनावटी आँसू निकालकर बंदर से बोला- ‘‘हे बंदर भाई नदी का पानी कुछ कम हो गया है। आओं मैं तुम्हें अपनी पीठ पर नदी पार करा दूँ वरना खुद तो भूख प्यासे मरोगे और अपने बच्चोें को भी मार डालोगे।’’ बंदर घड़ियाल का अभिप्राय समझ गया था फिर भी उसने घड़ियाल की नेक नीयत पर संदेह प्रकट करते हुए कहा कि मैं कैसे मान लूँ कि तुम हमें सुरक्षित नदी पार करवाओगे? घड़ियाल हँसा और बोला-‘‘भाई ऐसे में जब सभी पर विपत्ति टूट पड़ी है 

                 मैं तुमसे धोखा करके क्या करूँगा।’’ वैसे भी तुम्हारे लिए पानी कम हुए बगैर टीले से नीचे उतरना कठिन काम है। यदि बाहर निकलना चाहते हो तो मुझ पर विश्वास करो, वरना मौत के मुँह में जाओगे। इतना कहकर घड़ियाल पानी के भीतर चला गया।

                 बंदर ने सोचा कि घड़ियाल की बात उसे मान लेनी चाहिए लेकिन अपनी तथा बच्चों की रक्षा तो उसे करनी ही थी। इसीलिए उसने एक चाल चलने की ठानी। थोड़ी देर बाद जब घड़ियाल ने बंदर से अपनी तरकीब के संबंध में पूछा तो बंदर बोला -‘‘घड़ियाल भाई इतने दिनों की बारिश में हम सब सूख कर काँटा हो गए हैं।’’ जब तक हफ्तों कुछ खा पी न ले शरीर बन नहीं पाएगा। 

                 सुनो तुम्हें बंदरिया का मांस पसंद है न? इस बाढ़ में वह नदी के दूसरे किनारे पर रह गयी है। हमारी राह देख रही होगी। इसलिए तुम हमें नदी पार करा दो तो मैं अपनी बंदरिया को तुम्हारे सुपुर्द कर दूँगा। घड़ियाल मान गया। उसने भी सोचा कि दुबले पतले मरियल बच्चों को खाने से बेहतर है कि बंदर की बात मान ली जाए और बंदरिया की दावत उड़ाई जाए। उसके मुँह में पानी आ गया। वह बंदर और उसके बच्चों को अपनी पीठ पर बैठाकर धीरे- धीरे नदी के दूसरे किनारे पर पहुँच गया। किनारे पहुँचते ही बंदर तुरन्त ही अपने बच्चों को सीने से चिपकाकर समीप के  झाड़ पर चढ़ गया तो घड़ियाल बोला हे भाई अब अपना वचन पूरा करो।

                  मुझे जोरों की भूख लगी है। बंदर बोला घड़ियाल भाई तुम आखिर बुद्धू के बुद्धू ही रहे। मैं भला क्यों अपनी बंदरिया तुम्हें देना लगा। शायद तुम्हें याद नहीं कि पिछली बार अपना कलेजा लाने के बहाने तुम्हें जो झांसा दे गया था मैं वहीं बंदर हूँ और तुम वही घड़ियाल।

                  अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कोई क्या नहीं करता। इसीलिए सही समय पर सही मार्ग पर चुनाव करने में ही बुद्धिमानी है। घड़ियाल बंदर की चतुराई पर स्तब्ध रह गया और आँसू बहाते हुए सीधे पानी के भीतर चला गया।

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बादशाह और फकीर

                 पुराने जमाने की बात है एक बादशाह था। वह बड़ा ही नेक और दयालु था, उदार भी था। जो कोई फकीर उसके द्वार पर पहुँचता खाली हाथ नहीं लौटाता था।

                 एक दिन एक फकीर उसके महल के दरवाजे पर पहुँचा। उसके कपड़े साफ थे किन्तु फटे पुराने थे। उसने पहरेदारों से कहा- ‘‘बादशाह से कहो कि उनका भाई मिलने के लिए आया है।’’

                 बादशाह के कोई भाई नहीं था, यह बात पहरेदारों को मालूम थी। इसके अलावा इस फटीचर फकीर का राज परिवार का व्यक्ति होने में कौन विश्वास कर सकता था? पहरेदारों को संदेह हुआ कि कदाचित इसके दिमाग में कोई खराबी हैं, किन्तु फकीर अपनी बात पर डटा रहा। उसके हाव-भाव तथा बातचीत में पागलपन का कोई चिन्ह प्रकट नहीं होता था।

                 पहरेदार बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने निवेदन किया हुजूर गुस्ताखी माफ हो। एक फकीर बाहर खड़ा है और वह अपने आपको आपका भाई बताता है। बादशाह कुछ देर तक तो चुप रहा फिर उसने मुस्कराकर कहा - ‘‘ उसे बुला लाओ।’’

                 फकीर जब बादशाह के पास पहुँचा तो बादशाह ने उसका बड़ा सम्मान किया। अपने पास मसनद के सहारे बैठाया और फिर उससे पूछा- ‘‘कहिए, भाई साहब। आपने यहाँ आने का कैसे कष्ट किया?’’ फकीर ने जवाब दिया, भैया इस समय मैं बड़ी मुसीबत में हूँ। जिस महल में मैं रहता हूँ वह पुराना होेने के कारण गिरने वाला है।

                  मेरे पहले बत्तीस नौकर थे। वे मुझे छोड़कर चले गये। इसके अलावा जो मेरी पाँच रानियाँ थी वे भी निर्बल होने के कारण मेरी सेवा ठीक तौर से नहीं कर सकती। मैं आपके पास इसलिए आया हूँ कि मेरी कुछ सहायता कीजिए।

                 बादशाह ने खजांची को आज्ञा दी। इनको सौ रूपये दे दो।

                 सौ रूपये सुनकर फकीर बोला- ‘‘अपने भाई को आप केवल सौ रूपये दे रहे हैं। यह आपकी शान के खिलाफ है।’’ मैं तो बहुत बड़ी आशा लेकर आपके पास आया था किन्तु आपने मेरा कुछ भी ख्याल नहीं किया। बादशाह ने जवाब दिया रियासत का खर्च ज्यादा होने की वजह से खजाने में रूपया बहुत कम है। इसीलिए मैं आपकी अधिक सहायता करने में असमर्थ हूँ

                 बादशाह की बात सुनकर फकीर कहने लगा-‘‘ यदि आपके खजाने में रूपयों की कमी हैं तो मेरे साथ अफ्रीका महाद्वीप चलिए। वहाँ सोने के खाने हैं। जितना धन चाहे ले आइए।’’ बादशाह ने कहा-‘‘ बीच में समुद्र पड़ता है उसे कैसे पार करेंगे?’’ फकीर ने जवाब दिया -‘‘मैं आपके साथ चलूँगा और जहाँ मेरे पैर पड़ेंगे समुद्र अवश्य सूख जाएगा।’’ फकीर की बात सुनकर बादशाह बहुत हँसा और खजांची से बोला - ‘‘इन्हें एक हजार रूपये और दे दो।’’

                 जब रूपये लेकर फकीर चला गया तो राज-कर्मचारियों ने बादशाह से कहा- ‘‘अन्नदाता, आपकी और फकीर की जो बात हुई, उन्हें हम बिलकुल नहीं समझ सके।’’ बादशाह ने कहा- ‘‘सुनो! फकीर ने जो यह कहा था कि वह मेरा भाई है, एक तरह उसका कहना ठीक था। जिस तरह मैं इस मुल्क का बादशाह हूँ उसी तरह वह दीन (धर्म) का बादशाह है और इस नाते वह मेरा भाई है। लक्ष्मी और दरिद्रता दो बहने हैं। मैं लक्ष्मी का पुत्र हूँ और वह दरिद्रता का बेटा है।

                 उसने जो यह कहा था कि जीर्ण होने के कारण उसका महल गिरने वाला है। उससे उसका अभिप्राय अपने शरीर से था जो बूढ़ा होने के कारण निर्बल हो गया है और मृत्यु के  निकट है। उसने जो यह कहा था कि उसके बत्तीस नौकर उसे छोड़कर चले गए हैं। इससे उसका मतलब अपने दाँतों से था जो अब गिर गए हैं और मुँह बिलकुल पोपला हो गया है। उसने अपनी रानियों के बारे में कहा था कि कमजोर होने की वजह से उसकी सेवा नहीं कर सकती इससे उसका तात्पर्य अपनी आँख, कान इत्यादि पाँच इन्द्रियों से था जो अब शिथिल होने के कारण पूरा काम नहीं कर सकती।

                 राजकर्मचारियों ने फिर सवाल किया-‘‘हुजूर फकीर ने जो यह कहा था कि उसके पैर पड़ने से समुद्र सूख जाएगा, उसका क्या अभिप्राय था?’’ बादशाह ने मुस्कराकर जवाब दिया -‘‘उसने मेरे इस कथन पर कि खजाने में रूपये की कमी हो गई है, व्यंग्य किया था।’’ उसका यह उत्तर वास्तव मेें बड़ा चमत्कार पूर्ण था। अभिप्राय यह था कि जब वह इतना अभागा है कि महल में कदम रखते ही शाही खजाना खाली हो गया तो उसके पैर रखने से समुद्र भी अवश्य सूख जाएगा।

नोट- हेलो दोस्तों Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए- अगर पढ़कर अच्छी सीख तथा मनोंरजन तथा नई जानकारी प्राप्त हुई हो तो कृपया अपने दोस्तों के साथ शेयर, कमेन्ट करना न भूलें धन्यवाद।

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शनिवार, 19 जून 2021

Best 10 Hindi Stories-बेस्ट 10 हिन्दी कहानियाँ

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Hindi Story-Hindi Kahaniyan-  हिन्दी कहानी लेखकों द्वारा रचित एक रचना है, जो किसी न किसी घटना तथा आत्मज्ञान से ओतप्रोत होता है। हमारे देश में हिन्दी कहानियाँ, हिन्दी स्टोरी तथा विभिन्न प्रकार की लोक कथाएँ प्रचलित है जो बहुत उत्साहवर्धक, प्रेरक, ज्ञानवर्धक तथा मनोरंजन से परिपूर्ण हैै, जिसमें कुछ मनोरंजन कराती है तथा कुछ अपने की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ मैंने कुछ हिन्दी कहानियाँ, हिन्दी स्टोरी को संग्रह किया है जो आपके लिए रोचक तथा ज्ञानवर्धक हो सकती है आइये हिन्दी कहानियाँ पढ़ते है और कुछ नया सीखते है।

Best 10 Hindi Stories-बेस्ट 10 हिन्दी कहानियाँ
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बुद्धिमान व्यापारी-Intelligent businessman

        एक व्यापारी था। बहुत ही बुद्धिमान और बहुत धनवान। उसका करोड़ों का कारोबार था। उसके शहर में आए दिन कोई न कोई चोरी होती रहती थी, मगर चोर कभी भी पकड़ा नहीं जाता था, क्योंकि हर बार वह चालाकी से चकमा देकर भाग जाता था।

उस व्यापारी ने अपने बारे में यह अफवाह फैला रखी थी कि रात को उसे कुछ दिखाई नहीं देता क्योंकि उसे रतौंधी नामक रोग है। उधर जब चोरों को यह पता चला कि उस व्यापारी को रतौंधी रोग है, तो उन्होंने उस व्यापारी के घर हाथ साफ करने की योजना बनाई। अभी तक चोर उसके घर में चोरी करने में सफल नहीं हो सका था। एक रात जब चोर उस व्यापारी के घर हाथ साफ करने की योजना बनाई। अभी तक चोर उसके घर में चोरी करने में सफल नहीं हो सका था। एक रात जब चोर उस व्यापारी के घर चोरी करने पहुँचा, तो व्यापारी की आँख खुल गई। उसने चोर को देख भी लिया। मगर सोचा कि चोर के पास कोई हथियार भी हो सकता है। उसने एक चाल चली। वह पास सो रही अपनी पत्नी से जोर से बोला- ‘‘सुनती हो, अभी-अभी मैंने एक सुन्दर सपना देखा है।’’ 

पत्नी ने पूछा- ‘‘क्या देखा है?’’ ‘‘सुबह होते ही कच्चे रेशम के दाम दोगुने होने वाले हैं। अपने घर तो ढेर सारा रेशम का धागा है न?’’ हाँ है तो सही, मगर रात को क्या करना है?’’ पत्नी ने पूछा।

दरअसल पत्नी को पता नहीं था कि घर में चोर घुसा हुआ है। व्यापारी ने उसे इशारा करके बता दिया कि चोर खम्भे के पीछे छिपा हुआ है। फिर व्यापारी बोला-’’ अगर मुझे रतौंधी नहीं होती, तो सारा धागा इसी वक्त नापकर देखता कि आखिर कितना मुनाफा सूरज निकलते ही हो जाएगा।’’ ‘‘रहने भी दो’’ पत्नी बोली। ’’ सुबह ही नापकर देख लेना कि कितना फायदा होगा। आपको कुछ दिखाई तो देगा नहीं।’’ ‘‘अरे अपने ही घर मंे क्या मुझे पता नहीं चलेगा कि कौन सी चीज कहाँ है? मुझे तो चैन ही नहीं आ रहा है। आओ, उठकर रेशम नापें। कुछ करना थोड़े ही है, बस खम्भे के चारों तरफ लपेट-लपेट कर अनुमान लगा लूँगा कि कितना कच्चा धागा है।’’

‘‘ठीक है। मैं तो सो रही हूँ, तुम्हीं नाप लो।’’ उसकी पत्नी ने कहा तथा सोने का नाटक करने लगी। इधर व्यापारी ने अंधेपन का नाटक करते हुए खम्भे के चारों ओर कच्चे रेशम को लपेटना शुरू कर दिया। इसी बीच वह कई बार चोर के सामने से गुजरा जो उसी खम्भे से सटकर खड़ा था, मगर व्यापारी रेशम लपेटते हुए यही जता रहा था कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। फिर धीरे-धीरे खम्भे और चोर के चारो तरफ इतने चक्कर लग गए कि चोर के लिए टस से मस होना भी मुश्किल हो गया।

चोर ने यह सोचा था कि कच्चे रेशम के धागों को तोड़कर झट से निकल भागेगा, मगर उन कोमल-कोमल धागों ने मिलकर इतना सुदृढ़ रूप धारण कर लिया था कि वह उनमें बँधकर ही रह गया। यहाँ तक कि हाथ पाँव भी न हिला सका। इसके बाद व्यापारी ने पुलिस को बुलाकर चोर को उनके हवाले कर दिया। चोर ने यह जान लिया कि कच्चे धागे आपस मे जुड़कर जब एक हो जाते हैं तो वे भी पक्के हो जाते हैं। अर्थात् एकता की ताकत सबसे महान व अचूक है।

कहानी से शिक्षा-Story learning

  • दोस्तों हमें इस कहानी से यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा बुद्धि से काम लेना चाहिए।
  • एकता की ताकत सबसे महान व अचूक है। अतः हममें एकता होनी चाहिए।
  • किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिए।
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तोते का संदेश-Parrot message

        ईरान में एक व्यापारी था। उसके पास एक बहुत बातूनी तोता था। वह उस तोते से बहुत प्रेम करता था। वह सदा व्यापार में उलझा रहता। पर जब भी उसे समय मिलता, वह तोते से बातें करके अपना मन बहलाता था।
एक बार व्यापारी की इच्छा हुई कि वह भारत वर्ष की तरफ जाए व्यापारी ने आवश्यक काम समाप्त किया और फिर वह भारत वर्ष के भ्रमण के लिए चल पड़ा। चलते समय परिवार के सभी सदस्यों ने उपहारों की फरमाईश की। व्यापारी ने अपने मित्र तोते से स्वयं पूछा- ‘‘ऐ मेरे दोस्त तोते! तुम्हारे लिए मैं भारत वर्ष से क्या लाऊँ?’’
तोता दुःखी मन से बोला- ‘‘ मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। पर मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप जब भारत पहुँचे और हरे-भरे वनों में प्रसन्न और स्वतंत्र घूमने वाले तोतों को देखें, तो मेरा नमस्कार उन तक पहुँचाए और मेरा यह संदेश भी उनसे कहें कि क्या इसी को दोस्ती और संबंधी होना कहते हैं कि तुम लोग स्वतंत्र घूमो, हरे भरे खुले वातावरण में उन्मुक्त उड़ो और मैं यहाँ कैदी के समान पिंजड़े में बंद रहूँ? मेरे बारे मंे भी तो विचार करो और दूर पड़े कैदी के लिए कोई उपाय निकालो। व्यापारी ने ध्यान से संदेश सुना और वायदा किया कि वह अवश्य उसका संदेश पहुँचाएगा।’’
व्यापारी भारतवर्ष पहुँचा। एक घने सुन्दर वन से गुजरते हुए उसने वृक्षों पर फुदकते हुए ढेरों तोते देख, वह रूक गया। एक वृक्ष के नीचे जाकर उसने तोतों से अपने प्रिय बातूनी तोते का संदेश कहना शुरू किया। अभी वह अपनी बात पूरी भी नहीं कह पाया था कि वृक्षों पर बैठे तोतों में से एक तोता कांपा और तड़पकर धरती पर आ गिरा।
यह दृश्य देखकर व्यापारी दुःखी होकर सोचने लागा-‘‘यह क्या हुआ? इस नन्हें जीवन की मृत्यु का कारण मैं ही बना। क्यों मैंने संदेश सुनाया? इससे दुख नहीं सहा गया। बेचारा अपनी जान से हाथ धो बैठा।’’
थोड़े समय तक वह बुत बना खड़ा रहा। फिर विचारने लगा- ‘‘अब पछताने से क्या होता है। कमान से निकला तीर वापस थोड़े ही आता है?’’
वह विचार में डूबा हुआ लौट आया। अपने देश ईरान की तरफ लौटने से पहले उसने अपने सारे परिवार के लिए ढेर सारे उपहार खरीदे।
जैसा ही वह अपने घर में घुसा, तोते ने व्याकुलता से पूछा- ‘‘कहाँ है मेरा उपहार? तोतों तक मेरा संदेश पहुँचा दिया था न? मेरे संबंधियों ने क्या उत्तर दिया? जो भी उन्होंने उत्तर दिया हो बिना घटाए-घटाए एक-एक शब्द मुझे बताइए।’’
ये सारे प्रश्न तोते ने एक साँस में कह डाले। व्यापारी ने ठंडी साँस खींची- ‘‘ऐ मेरे प्यारे तोते! इस बात को भूल जाओ कि तुमने कोई संदेश मुझसे कहलवाया था। मैं स्वयं पश्चाताप की अग्नि में जल रहा हूँ कि मैंने क्यों तुम्हारा संदेश पहुँचाया?’’ तोते ने कहा-‘‘कुछ तो बताइए?‘‘
व्यापारी ने दुःखी कंठ से उत्तर दिया- ‘‘जिद मत करो। यह बात सुनने की हिम्मत तुममें नहीं है। मैं स्वयं को कोस रहा हूँ कि क्यों मैंने तुम्हारा कहना माना।’’
पर ऐसा क्या हो गया है जो आप इतने चिन्तित हो उठे हैं? तोते ने व्यग्रता से पंख फड़फड़ाए।
व्यापारी ने उत्तर दिया-‘‘मैं तुम्हारा संदेश तोतों से कह ही रहा था कि उनमें से एक तोते ने क्रोध व दुःख से अपनी जान दे दी। वह वृक्ष पर बैठा काँपता रहा। फिर तड़पकर नीचे गिर पड़ा। यह देखकर मैं लज्जित हो उठा। पर लज्जित होने से लाभ ही क्या था?’’
जैसे ही व्यापारी ने बात समाप्त की, तोता काँपने लगा और पिंजड़े में गिर पड़ा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। इस दृश्य को देखकर व्यापारी चिल्ला पड़ा और विलाप करने लगा। वह दुःख से हाथ मलने लगा। फिर दूसरी गलती हो गई। पर रोने से लाभ ही क्या था? उसने पिंजड़े का दरवाजा खोला। तोते को बाहर रखा, तोता झट उड़कर सामने दीवार पर बैठ गया।
व्यापारी का मुख अचरज से खुला रह गया। उसकी समझ में न आया कि वह क्या बोेले? तोते ने अपना मुख व्यापारी की ओर घुमाया और बोला- ‘‘मैं आपको कितना धन्यवाद दूँ कि आप मेरे लिए कैसा अनमोल उपहार लाए हैं। वह उपहार है स्वतंत्रता। उस तोते ने अपने को गिराकर बताया थ कि मैं स्वयं को किस प्रकार स्वतंत्र करा सकता हूँ।’’
व्यापारी निःशब्द खड़ा रह गया और तोता आकाश में फूर्र से उठ गया।

कहानी से शिक्षा-Story learning

    किसी भी जीव को बन्धक बनाकर या पिंजरे में कैद करके नहीं रखना चाहिए क्योंकि उसकी भी अपनी जीवन होती है, वह भी आकाश तथा स्वतंत्र वातावरण में उड़ना व रहना चाहता है और अपने सगे संबंधियों के साथ खेलना पसन्द करता है।



Best 10 Hindi Stories-बेस्ट 10 हिन्दी कहानियाँ
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सत्संग का महत्व-Importance of satsang

        एक गाँव था जिसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घने जंगल थे। गाँव के बीच में एक पगडंडी जाती थी जिसमें सुबह से शाम तक गाँव वालों तथा यात्रियोें का आना जाना लगा रहता था। उसी गाँव में रामदास नामक एक वृद्ध व्यक्ति अपने घर के दरवाजे पर नियमित रूप से आग जलाकर बैठ जाता। इधर-उधर से गुजरने वाले ग्रामीण उसके पास बैठते, आग तापते, तम्बाकू पीते, अच्छी-अच्छी बातें करते और चले जाते। रामदास सामान्य आर्थिक स्थिति का था किन्तु उसने अपने जीवन में इतना धन कमा लिया था कि लकड़ी और तम्बाकू का खर्चा आसानी से उठा लेता था।
रामदास के चार लड़के थे। चारों को अपने पिता का इस तरह लकड़ियाँ और तम्बाकू का खर्च करना बहुत बुरा लगता था। वे इसे धन तथा समय की बरबादी समझते थे। उनकी पत्नियाँ भी अपने ससुर को सनकी तथा पागल समझती थीं। इसी बात को लेकर कभी-कभी रामदास तथा उसके बेटों में कहासुनी भी हो जाती थी। रामदास उन्हें समझा देता, तो वे मान जाते। किन्तु जब उनकी पत्नियाँ उनके कान भरती तो फिर चारों भाई अपने वृद्ध पिता से तम्बाकू और लकड़ी का खर्चा बन्द करने के लिए कहने लगते। एक दिन चारों की पत्नियों ने मिलकर अपने-अपने पतियों को रामदास की तम्बाकू व लकड़ी के खर्चें पर प्रतिबंध लगाने की जिद की। चारों लड़के वृद्ध पिता के पास पहुँचे और सिर झुकाकर खड़े हो गए।
कहो क्या बात हैं? रामदास ने अपने बेटों की ओर ध्यान से देखते हुए पूछा।
पिता जी हम आज से आपका लकड़ी व तम्बाकू का खर्चा बन्द करना चाहते हैं। बड़े बेटे ने कुछ गंभीरता से कहा।
‘‘मैं भी यही सोच रहा था तुम लोग प्रतिदिन अपनी-अपनी पत्नियों के कहने में आकर मेरी लकड़ी व तम्बाकू का खर्चा बंद करने की बात करते हो। मैं आज से ही यह बंद तो कर दूँगा, लेकिन यह अच्छी बात नहीं होगी।’’ रामदास ने कठोरता से कहा।
‘‘पिता जी यह फालतू खर्चा है। जितना पैसा आप लकड़ी और तम्बाकू पर खर्च करते हैं इतने पैसों को जोड़कर हम कुछ दिनों में काफी धन एकत्रित कर सकते हैं और उससे छोटा बेटा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया’’
’’व्यर्थ परेशान मत हो मेरे बेटो। मैं सब समझता हूँ। मुझे समझाने का प्रयास मत करो, मेरा जो कुछ भी है, तुम्हारा ही है। मैं आज से ही लकड़ी और तम्बाकू का खर्च लेना बंद कर देता हूँ। रामदास ने छोटे बेटे की बात काटते हुए कहा और जलती हुई आग तथा तम्बाकू की थैली पकड़कर जंगल की ओर घूमने निकल गये। चारों बेटे बहुत खुश थे। खुशी के दो कारण थे एक तो वे सोच रहे थे कि आज से उनकी पत्नियाँ उनसे बहुत खुश रहा करेंगी और दूसरा वे लकड़ी व तम्बाकू पर होने वाले खर्च को बचाकर शीघ्र ही धनवान बन जाएँगे।’’
धीरे-धीरे काफी समय बीत गया। चारों बेटों की पत्नियाँ तो अभी भी किसी न किसी बात पर अपने अपने पतियों से लड़की थीं किन्तु उनके पास अब काफी धन जमा हो गया था। रामदास प्रतिदिन प्रातः अकेला ही घूमने निकल जाता और शाम तक लौटता। वह अपने बेटों की प्रगति की प्रशंसा तो करता था। किन्तु अब उसके घर के सामने आने जाने वालों का बैठना कम हो गया था। इससे वह उदास रहता। चारों बेटे दिन भर खेती किसानी में मस्त रहते और शाम को घर लौटने पर अपनी-अपनी पत्नियों के साथ घूमने फिरने निकल जाते या घर के कामकाज में लग जाते। 
        रामदास के लिए वृद्धावस्था में अकेलेपन का कष्ट अत्यन्त दुखदायी बन गया था। एक दिन चारों बेटों का खेती की जमीन को लेकर झगड़ा हो गया। रामदास को मालूम हुआ तो उसे बहुत दुख हुआ किन्तु वह चुप रहा। दूसरे दिन पंचायत बैठ गयी। चारों बेटों ने काफी धन बचा लिया था। वे समृद्ध हो गए थे। किन्तु सत्संग के अभाव के कारण उनमें सामाजिक ज्ञान कम था। वे समाज के रीति रिवाज व पंचायत के कार्यों को नहीं समझते थे। लालची प्रकृति के कारण उनके साथ गाँव का कोई व्यक्ति नहीं था। 
अतः निर्दोश होते हुए भी वे पंचायत के समक्ष अपने को बेगुनाह सिद्ध नहीं कर पा रहे थे। दूसरा पक्ष सभी तरह से समर्थ था उसके साथ पूरा गांव था क्योंकि वह गाँव के सभी कार्यों में आगे बढ़कर भाग लेता था। धीरे-धीरे काफी समय हो गया। पंचायत कोई फैसला नहीं कर पा रही थी। चारों बेटों ने जितना धन वृद्ध पिता की लकड़ी व तम्बाकू पर प्रतिबंध लगाकर बचाया था सब खर्च हो गया था और पास का भी काफी धन निकल गया था। अब वे परेशान और उदास रहने लगे। एक दिन रामदास की दृष्टि अपने बेटों पर पड़ी वे उसे काफी परेशान व दुखी दिखाई पड़े। 
        प्रिय बेटों इधर आओ। क्या बात है? तुम लोग इतने दुखी और परेशान क्यों हो? रामदास ने चारों बेटों को पास बुलाते हुए पूछा। जी पिता जी, कुछ नहीं। बड़े भाई की बात करने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी क्योंकि लकड़ी और तम्बाकू बंद करने की सर्वाधिक जिद उसी ने की थी।
घबराओं मत जो भी बात हो साफ-साफ कहो। हो सकता है वृद्ध पिता तुम्हारा दुःख दूर करने में कुछ सहयोग कर सके। रामदास ने बड़े प्यार से कहा।
पिता जी, हमने आपका लकड़ी और तम्बाकू का खर्चा बंद करके अच्छा नहीं किया। बड़े भाई ने दुखी स्वर में मुँह लटकाकर कहा।
लेकिन पहले पूरी बात तो बताओ। रामदास ने फिर प्यार से पूछा।
चारो भाईयों ने खेती के झगड़े व पंचायत की पूरी कहानी अपने वृद्ध पिता को सुना दी। यह भी बता दिया कि जितना धन उन्होंने बचाया था, सब खर्च हो गया और पास का भी काफी धन खर्च हो गया। मेरे बेटांे अब तुम क्या चाहते हो? रामदास ने मुस्कराकर पूछा।
पिताजी, आप आज से ही घर के बाहर आग जलाकर तम्बाकू की थैली रखकर बैठना आरंभ कर दीजिए। आपके पास, आप-पास के लोग आएँगें उन्हीं से कुछ बात बन सकती हैं। चारों बेटों ने अपने मन की बात कह दी। ‘‘ठीक है।’’ रामदास ने गर्दन हिलाई। वह बाहर उसी स्थान पर बैठ गया जहाँ बैठा करता था। बड़े लड़के ने तुरन्त लकड़ियाँ लाकर रख दी, दूसरे ने आग सुलगाई, तीसरे बेटे ने तम्बाकू की थैली लाकर रख दी और चैथे ने जगह की सफाई कर दी। दो चार दिन मे ही फिर से राहगीर रामदास की तरह आग तापते, तम्बाकू पीते, अच्छी-अच्छी बाते करते और चले जाते।
एक दिन एक वृद्ध राहगीर से जो उसी गाँव का रहने वाला था रामदास ने अपने बेटों की विपत्ति के बारे मेें कहा। वृद्ध राहगीर बड़ा बुद्धिमान था उसने आश्वासन दिया कि अगली पंचायत में निर्णय उसके पक्ष में होगा। रामदास ने अपने बेटों को युक्ति बताई तथा अगली पंचायत में वृद्ध के निर्देशानुसार कार्य करने को कहा। चारों भाइयों ने अपने पिता के कहे अनुसार ही पंचायत में बात की।
पंचायत समाप्त हो गयी व निर्णय उनके पक्ष में हुआ। घर लौटने पर चारों बेटों ने अपने पिता को प्रणाम किया व उनकी लकड़ी व तम्बाकू का खर्च दुगना कर दिया। बेटों व उनकी बहुओं को सत्संग का महत्व अब मालूम हो चुका था।

कहानी से शिक्षा-Story learning

  • माता पिता का आदर करना चाहिए, अपनी स्वार्थ हित के लिए माता पिता का परित्याग नहीं करना चाहिए।
  • एकता में शक्ति होती है।
  • जीवन में संगत का बड़ा प्रभाव पड़ता है, इसलिए सही संगत करनी चाहिए।

Best 10 Hindi Stories-बेस्ट 10 हिन्दी कहानियाँ
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बुद्धिमान मंत्री-Wise minister

        काफी समय पहले की बात है। एक राजा के राज्य में ज्योतिषियों को बड़ा सम्मान मिलता था। राजा अत्यन्त विलासी और डरपोक था। वह राज्य की छोटी से छोटी समस्याओं के निदान के लिए ज्योतिषियों से परामर्श लिया करता था। अतः राजदरबार में ज्योतिषियों की भीड़ रहती थी। एक बार उसके राज्य में एक ऐसा ज्योतिषी आया जिसने जिस किसी भी व्यक्ति को जो कुछ बतलाया वह सत्य हुआ। लोगों में विश्वास था कि उस ज्योतिषी की जुबान पर सरस्वती बैठकर बोलती है।
ज्योतिषी की प्रशंसा धीरे-धीरे राजा के कानों तक पहुँची। एक दिन राजा ने दरबार में आज्ञा दी, नए ज्योतिषी को कल दरबार में सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाए एवम् उत्सुक प्रजा भी उपस्थित रहे। अगले दिन वह ज्योतिषी राजदरबार में उपस्थित हुआ और आम व खास जनता से दरबार भर गया था। राजा की शान में अनेक बातें हो रही थी। तभी राजा ने ज्योतिषी से प्रश्न किया- ‘‘आप यह बताइए कि मैं कब तक राज्य कर सकूँगा?’’ इस प्रश्न के उत्तर के लिए उपस्थित लोग उत्सुक हो गए। कुछ देर रूकने के बाद ज्योतिषी ने कहा- ‘‘महाराज! जान की माफी चाहता हूँ।‘‘ इस पर राजा ने कहा- ‘‘आपको कोई भय नहीं होना चाहिए। आप निः संकोच कहें। आप तो हमारे अतिथि हैं, फिर डर किस बात का?’’ तब ज्योतिषी ने कहा-‘‘ महाराज! आप इस राज्य का शासन मात्र चार महीने और करेंगे।’’
सुनते ही सब अवाक रह गए। थोड़ी देर चुप्पी रही। तब मंत्री ने सभी को संबोधित कर सभा समाप्ति की घोषणा कर दी। आठ दिन गुजर गए, पर राजा दरबार में उपस्थित नहीं हुए। अब उनका मन राज-काज में नहीं लगता था। उन्हें तो परलोक की चिन्ता सता रही थी। 
        अतः ब्रम्हाणों को भोजन कराना, दान-पुण्य करना तथा जप-तप में ही उनका दिन गुजर जाता था। महामंत्री जब भी किसी समस्या को लेकर उनके पास जाते तो राजा कहते अब मेरे पास जो वक्त है, उससे मैं अपना परलोक सुधारना चाहता हूँ। अतः आपको जो भी उचित लगे, जनहित में कीजिए। अनेक बार प्रयास किए गए पर राजा दरबार में उपिस्थत नहीं हो सके। इसी बीच गुप्तचरों ने सूचना दी कि पड़ोसी राजा उमराव सिंह हमारे राज्य पर आक्रमण की तैयारी कर रहा है। इस गुप्त संदेश पर राजा से चर्चा की गई, पर विलासी राजा मृत्यु के डर से कोई निर्णय नहीं ले सका। महामंत्री ने आपात् बैठक बुलाई और समस्या का निदान सोचने लगे। विचारोपरान्त सर्वसम्मति से यह तय किया गया कि सर्वप्रथम राजा के मन से ज्योतिषी की भविष्यवाणी का भय भगाया जाए। इस पर विशेष सलाहकार मंत्री ने कहा-‘आप सब बेफ्रिक रहें, यह कार्य मैं कर दूँगा।’’ आप सब प्रयास कर उन ज्योतिषी महाशय को एक बार फिर दरबार में उपस्थित करा दे एवम् सेना को आक्रमण के लिए तैयार रखते हुए एक टुकड़ी उमराव सिंह के राज्य की सीमा पर भेज दें।
        दो दिन बाद राजदरबार में उस ज्योतिषी को पुनः उपस्थित किया गया। आज दरबार में राजा से विशेष रूप से उपस्थित होने का आग्रह किया गया था। अतः वह प्रजा के साथ उपस्थित थे। सभी उपस्थित हो चुके थे। कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी थी, तभी राजा के विशेष सलाहकार ने राजाज्ञा चाही। आज्ञा मिलने पर उन्होंने उस ज्योतिषी से कहा- ‘‘कृपया पुनः गणनाकर बताइये कि हमारे प्रजा-पालक महाराज की छत्रछाया प्रजा पर कब तक रहेगी?’’
        ज्योतिषी ने गणना कर बताया- ‘‘हमारे प्रजा पालक महाराज तीन माह दो दिन और प्रजा पालन करेंगे।’’
तब मंत्री बोला- ‘‘ आपके पास कोई प्रमाण है कि आप जो कुछ कह रहे हैं वह सब सही ही है।’’
ज्योतिषी ने कहा- ‘‘ज्योतिष तो भविष्य के लिए कथन होता है, जो अभी हुआ ही नहीं है उसका कोई प्रमाण वर्तमान में नहीं होता।’’ तब मंत्री महोदय बोले- ‘‘मैं तो उस भविष्यवाणी पर विश्वास रखता हूँ जिसका वर्तमान में कोई प्रमाण हो?’’
जवाब मे ज्योतिषी ने कहा-‘‘ ऐसा संभव नहीं है।’’ इस पर मंत्री ने कहा- ’’यह संभव नहीं अपितु अत्यन्त सरल भी है।’’ 
मंत्री की इस बात पर राजा सहित दरबार के अन्य लोग भी आश्चर्य में पड़ गए। मंत्री ने कहा- ‘‘ज्योतिषी जी, कृपया यह बताइये कि आपकी जिन्दगी अभी कितनी शेष है?’’
ज्योतिषी ने गणना कर बताया-‘‘मुझे अभी 34 साल, 8 महीने, 4 दिन और जीना है।’’
इस पर मंत्री ने फिर पूछा-‘‘क्या आपके पास इस भविष्यवाणी की सत्यता का कोई प्रमाण है?’’ ज्योतिषी ने नहीं में सिर हिला दिया।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि मंत्री क्या प्रमाणित करना चाहते हैं तभी मंत्री ने फिर कहा-‘‘महाराज! मेरे पास वर्तमान में प्रमाण है कि ज्योतिषी की भविष्यवाणी असत्य है। मैं इसी वक्त इनकी भविष्यवाणी को झुठला सकता हूँ।’’
दरबारी मंत्री की दलील सुनकर अवाक रह गए। प्रकरण को एक नया मोड़ मिला। राजा ने मंत्री से कहा - ‘‘आपके पास ज्योतिषी की भविष्यवाणी असत्य साबित करने के प्रमाण हैं तो वे तुरन्त प्रस्तुत किए जाएँ।
मंत्री ज्योतिषी के आगे खड़े हो विनम्रता पूर्वक बोले- ‘‘महाराज! मैं एक बार पुनः आज्ञा चाहता हूँ।’’ राजा ने पुनः आज्ञा दे दी। उपस्थित लोग अभी तक समझ भी न पाए थे कि मंत्री कौन सा गुल खिलाना चाहते हैं। मंत्री ने एक झटके से अपनी तलवार निकाली और एक क्षण में ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग कर दिया। मंत्री की यह हरकत देख राजा आग बबूला हो गया। राज्य के ज्योतिषी और ब्राम्हण ‘‘ब्रह्म हत्या’’ ब्रह्म हत्या चिल्लाने लगा। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था पर जो सत्य था, वह सामने था। उस ज्योतिषी के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
राजा ने कहा- ‘‘ मंत्री, तुम जानते हो तुमने ब्रम्ह हत्या की है जिसके लिए तुम्हें मृत्यु दण्ड दिया जा सकता है? बताओ, तुमने ज्योतिषी की हत्या क्यों की।
मंत्री ने अत्यन्त शान्त स्वर में जवाब दिया-‘‘ महाराज! जो आदमी यह नहीं जानता कि पलभर बाद उसकी मृत्य सुनिश्चित है, वह 34 साल और जीने की भविष्यवाणी कर रहा है?‘‘ क्षमा करें, मैंने ज्योतिषी की भविष्यवाणी को असत्य साबित करने के लिए पहले अनुमति ले ली थी बाद में यह कृत्य किया।
अतः यह दण्डनीय अपराध नहीं अपितु ज्योतिषी को झूठ बोलने पर स्वतः ही दण्ड मिल गया। मैंने यह कृत्यु इसलिए भी किया है कि सब यह जान लें कि भविष्य का कोई प्रमाण नहीं होता, अतः भविष्यवाणियों के भरोसे कोई कार्य या राजकाज नहीं चलाया जा सकता। राजकाज के लिए तो विद्वानों की सूझबूझ और शूरवीरों की सेवाएँ आवश्यक होती हैं, न कि ज्योतिषियोें की भविष्यवाणियाँ। 
        अतः महाराज आप तो चिरायु हैं। मात्र 3 महीने 4 दिन की जिन्दगी वाली भविष्यवाणी का कोई प्रमाण नहीं हैं। अतः उसे झूठा मानकर पुनः राजकाज प्रारम्भ कीजिए। इससे प्रजा अति प्रसन्न होगी।
        राजा ने उठकर मंत्री को धन्यवाद दिया और सभा की कार्यवाही समाप्ति की घोषणा करते हुए प्रजा से कहा- ‘‘ आज के बाद मैं ज्योतिषयों के चक्कर में नहीं पडँ़ूगा। मेरी आँखें खुल गई हैं।’’ मैं अपने मंत्री का आभारी हूँ जिसने इस कठिन समय में मेरी आँखे खोली हैं। वास्तव मे सच्ची सेवा ही राजा के लिए परलोक सुधार का मार्ग है। सभी लोग मंत्री की बुद्धिमानी की प्रशंसा करते हुए चले गए।

कहानी से शिक्षा-Story learning

  • हमें व्यर्थ ही भविष्यवाणी की उलझन में नहीं फँसना चाहिए।
  • हमेशा धूर्तों से सावधान रहना चाहिए।
  • भाग्य के भरोसे रहने पर भाग्य सोया रहता है परन्तु स्वयं उठ जागने से भाग्य भी जाग उठता है।
  • कठोर मेहनत ही सफलता का एक मात्र रहता है।
नोट- हमें उम्मीद है कि "Hindi Story" तथा "Hindi Kahaniyan" पढ़कर आपको पसन्द आई होगी। इस कहानी को पढ़कर शिक्षा मिली हो तो प्लीज कमेन्ट करके मुझे जरूर बताये तथा अपने मित्रों तथा दोस्तो के साथ जरूर से जरूर शेयर करें। धन्यवाद।




शुक्रवार, 18 जून 2021

Top 10+ Hindi Kahaniyan-Hindi Story | हिन्दी कहानियाँ पढ़ने के लिए

Hindi Kahaniyan| Hindi Story, Hindi Story Online Reading|Hindi Short Story-हिन्दी कहानियाँ पढ़ने के लिए यहाँ पर ऐसा 10 विशाल कहानियों का संग्रह किया गया है जो ज्ञानवर्धक, प्रेरक और बहुत ही मूल्यवान है। जिसको पढ़ करके कुछ न कुछ सीख अवश्य मिलती है। आइए अपने मित्रों तथा बच्चों को इस ज्ञान के भण्डार को अवश्य प्रदान करें।


Top 10+ Hindi Kahaniyan-Hindi Story|हिन्दी कहानियाँ पढ़ने के लिए

लोटे मेें पहाड़

            दक्षिण दिशा में एक छोटा सा गाँव था। वहाँ रहने वाले लोग सीधे-सादे और मेहनती थे। इसीलिए वहाँ सदा हरियाली और खुशहाली छाई रहती थी।

एक दिन न जाने कहाँ से एक  राक्षस, पास के पर्वत पर आकर रहने लगा। राक्षस भी ऐसा भयानक कि अट्टहास करता, तो मुँह से आग निकलती। उस आग से गाँव के पेड़-पौधे झुलस जाते। पशु-पक्षी छटपटाने लगते। रोज-रोज यह सब होता। अब गाँव में चैन से रहना ही दूभर हो गया था।

आखिरकार गाँव वालोें ने एक सभा बुलाई। सभी ने उसमें भाग लिया। सरपंच ने समस्या सबके सामने रखी, लेकिन कोई इसका हल नहीं बता पाया।

तभी एक बूढ़ा, लाठी टेकता वहाँ आया। बोला, ‘‘इस विपत्ति से छूटने का समाधान तो मैं बता सकता हूँ, लेकिन इसके लिए गहरे सागर, ऊँचे पर्वत और भयानक जंगल पार करके हिमदेव के पास जाना पड़ेगा, रास्ता बहुत कठिन व खतरनाक है। गाँव में है कोई ऐसा साहसी युवक, जो यह काम करने की हिम्मत कर सके?’’

बूढ़े की बात सुन, सभा में सन्नाटा छा गया। सब इधर-उधर देखने लगे।

तभी एक छोटा सा बालक खड़ा हुआ। उसका नाम चेतन था। बोला- ‘‘बाबा, मुझे बताओ, क्या करना है?’’

चेतन को देख, बूढ़े ने हँसकर कहा- ‘‘बच्चे, तुम अभी बहुत छोटे हो। यह काम तुमसे नहीं होगा।’’

चेतन बोला- ‘‘आप मुझे बतायें तो सही। मैं किसी से नहीं डरता। अपने गाँव की रक्षा के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।’’

यह सुन, बूढ़े ने चेतन को अपने पास बुलाया। कहा- ‘‘देखो उत्तर दिशा में हिमदेव का महल है। वहाँ जाकर उन्हें अपनी समस्या बतानी होगी। वह चाहेंगे, तो तुम्हारी दुःख दूर हो जायेंगे।’’

-‘‘परन्तु मैं वहाँ पहुँचूँगा कैसे?’’

‘‘मैं तुम्हें जादुई जूते दूँगा। उन्हें पहनकर तुम बहुत तेजी से चल सकोगे। रास्ते में जो विपदाएँ आएँगी, उनसे तुम्हें स्वयं ही निपटना पड़ेगा, यहीं तुम्हारे साहस की परीक्षा होगी।’’- इतना कहकर बूढ़े ने चेतन को एक जोड़ी जूते दे दिए।

‘‘कल सुबह ही तुम यहाँ से चले जाओ। जल्दी से जल्दी वापस आना। कहीं ऐसा न हो, तुम्हारे आने से पहले ही राक्षस पूरे गाँव को उजाड़ दे।’’

अगले दिन सुबह-सुबह चेतन घर से निकल पड़ा। गाँव से बाहर पहुँचते ही उसने जाुदई जूते पहन लिए। जूते पहनकर वह दस दिन की दूरी एक दिन में तय कर सकता था। वह तेजी से उत्तर दिशा में चल पड़ा।

सबसे पहले उसके रास्ते में ऊँचे- ऊँचे पर्वत आए, लेकिन जूतों की सहायता से वह लम्बी-लम्बी छलांग मारकर, उन पर चढ़ गया। पहाड़ी रास्ता पार करने में उसे कई दिन लग गए। वह बुरी तरह थक गया। फिर भी उसने आराम नहीं किया। चाहता था, जल्दी से जल्दी अपनी मंजिल पर पहुँच जाए।

एक ऊँचे पर्वत की घाटी में उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी। चेतन ने आसपास देखा, तो पाया कि एक बड़ा सा काला नाग एक पत्थर के नीचे दबा पड़ा था। चेतन को दया आ गई। उसने पत्थर हटाकर नाग को मुक्त कर दिया।

नाग ने चेतन को बहुत धन्यवाद दिया। फिर वहाँ आने का कारण पूछा। चेतन ने उसे पूरी बात बता दी। उसकी बात सुन, नाग ने कहा- ‘‘तुमने मेरी जान बचाई है। मैं बदले मेें तुम्हें एक तीर कमान देता हूँ। इसका वार कभी खाली नहीं आता है। छोड़ने के बाद तीर वापस भी आ जाता है।’’

नाग से तीर कमान ले, चेतन आगे बढ़ा। अब जंगल का रास्ता शुरू हो गया। साथ ही भयानक जानवर चेतन पर झपटने लगे। चेतन घबराया नहीं। तीर कमान की सहायता से वह सब जानवरों को मारता-भगाता आगे बढ़ने लगा।

अचानक एक दिन चेतन का सामना एक बहुत बड़े भयानक जानवर से हो गया। उसके तीर सिर थे। पूरे शरीर पर छोटे-बड़े जहरीले कीड़े चिपके हुए थे। ऐसा जानवर चेतन ने पहले कभी नहीं देखा था।

उसे देख, पहले तो चेतन घबरा गया, लेकिन अपने गाँव की मुसीबत की याद आते ही चेतन में हिम्मत भर गई। उसने कमान पर अपना तीर रखकर ताना। वह तीर छोड़ने वाला था, तभी जानवर बोला- ‘‘ठहरो, मुझे मत मारो।’’

चेतन रूक गया। उस जानवर ने कहा- ‘‘दुनियाँ में केवल एक ही शस्त्र है, जिससे मैं मर सकता हूँ। ओर वह है तीर-कमान। अगर तुम मुझ पर दया कर, मुझे न मारो, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।’’

‘‘ क्या मदद कर सकते हो तुम?’’ - चेतन ने पूछा।

‘‘मुझे पता है, तुम हिमदेव के पास जा रहे हो। आगे सात सागर आयेंगे। उनके साधारण मनुष्य पार नहीं कर सकता। मेरे जादुई लोटे की सहायता से तुम आसानी से उन्हें लांघ सकोगे।’’

यह कहकर उसने चेतन को रत्नों से जड़ा एक सुन्दर लोटा दिया। उसे प्रयोग करने का तरीका भी बता दिया।

लोटा लेकर चेतन आगे बढ़ा। कुछ देर बाद वह समुद्र के आगे खड़ा था। तूफानी हवाएँ चल रही थीं। समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं।

चेतन के पास तो इसका समाधान था। उसने झुककर समुद्र की कूछ बूँदें लोटे में ले ली। ऐसा करते ही समुद्र बिलकुल शांत हो गया। पानी के बीच में सूखा रास्ता निकल आया। इस प्रकार चेतन ने आराम से सातों समुद्र पार कर लिए।

चलते -चलते चेतन हिमदेव के महल पर पहुँच गया। महल बर्फ का बना था और शीशे की तरह चमक रहा था। चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। चेतन ठंड से काँपता हुआ महल की ओर बढ़ा। महल का द्वार बन्द था। चेतन ने द्वार खटखटाया, किन्तु किसी ने द्वार न खोला।

तीन दिन तक चेतन महल के बाहर ठण्ड में खड़ा, दरवाजा खटखटाता रहा, किन्तु सब बेकार। वह निराश होकर वापस जाने की सोच रहा था, तभी एक चिड़िया उड़ती हुई आई। बोली- ‘चेतन, द्वार पर अपना तीर चलाओ।’

चेतन ने द्वार पर तीन चलाया, तो क्षण भर में द्वार खुल गया। चेतन अंदर गया। एक बड़े कक्ष में सफेद कपड़े पहने हिमदेव बैठे थे। उनके हाथ में एक बड़ा सा पंखा था। एक तरफ बहुत सारी रूई पड़ी थी। वह अपने पंखे को हिलाते, तो रूई बर्फ बनकर ठंड हवा के झोकों के साथ बाहर निकलती।

चेतन को देखकर वह बोले-‘‘अरे, बालक! कहो, क्या काम है?’’

चेतन ने उन्हें पूरी कहानी सुनाकर कहा- ‘‘ आपसे प्रार्थना है, किसी भी तरह इस मुसीबत से छुटकारा दिलाएँ।’’

‘‘तुम जैसे साहसी बच्चे की मदद करके मुझे खुशी होगी। लाओ, अपना लोटा इधर लाओ।’’ - हिमदेव ने कहा।

हिमदेव ने लोटे पर अपना पंखा झला और कहा - ‘‘जाओ, इस लोेटे का पानी उस राक्षस पर फेंक देना।’’

लोटा लेकर चेतन महल से बाहर निकला। बाहर बड़ी चिड़िया बैठी थी। बोली- ‘‘क्या तुम्हें पता, घर से निकले तुम्हें छह महीने हो गए हैं? अगर तुम जल्दी वापस न पहुँचे, तो पूरा गाँव खत्म हो चुकेगा।

‘‘छह महीने!’’ चेतन ने अचरज से कहा-‘‘ मुझे तो लग रहा है, जैसे मैं कुछ ही दिन पहले घर से निकला था, लेकिन अब वापस जाने में भी उतना ही समय लग जाएगा।’’

‘‘मैं तुम्हें अपने दो पंख देती हूँ। इन्हें तुम अपने जूतों पर लगा लो। फिर तुम पहले से भी ज्यादा तेजी से चल सकोगे।’’

चेतन ने चिड़िया के लिए पंख अपने जूतों पर लगा दिए और तेजी से गांव की ओर चल पड़ा।

कुछ ही दिन में वह अपने गांव पहुँच गया। इस बीच गाँव के सारे पेड़ तथा खेत सूख गए थे। चेतन को देख, गाँव वाले बहुत खुश हुए।

चेतन गाँव वालों के साथ लोटा लेकर राक्षस की ओर गया। राक्षस ने चेतन को आते देखा, तो जोर से दहाड़ा। चेतन ने लोटे का पानी उसकी ओर फेंक दिया। ऐसा करते ही उस छोटे से लोटे में से बर्फ निकली। राक्षस के मुँह से निकलती लपटें तुरन्त ठण्डी पड़ गई। बर्फ निकलती रही, निकलती रही और राक्षस पूरा का पूरा बर्फ से ढक गया। कुछ ही देर में राक्षस के स्थान पर केवल बर्फ का एक पहाड़ रह गया था।

लोग खुशी से झूम उठे। उन्होंने चेतन को कंधों पर उठा लिया। कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि राक्षस के स्थान पर ठण्डे पानी की एक सुन्दर झील बन गई। गाँव में एक बार फिर सुख-शांति छा गई।

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झील महल

      अरूणागढ़  के राज कुमार विक्रम ने कुछ वर्ष आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त की। एक दिन वह महल में लौटा। वहाँ उसे नई रानी मिली। उसकी माँ का बचपन में देहान्त हो गया था। विक्रम के आश्रम जाने के चार पाँच साल बाद मंत्री ने अपने मामा की लड़की से राजा का विवाह करा दिया। विक्रम को यह पता चला, तो उसने राजा से इस बारे में नाराजगी प्रकट की। राजा और विक्रम में कहा-सुनी भी हुई। इस पर विक्रम की सौतेली माँ जल भुन गई। वह विक्रम को मृत्युदण्ड दिलाना चाहती थी। मगर राजा ने उसे एक वर्ष का अज्ञातवास दे दिया। उसने कहा- ‘‘बेटा, यदि तुम अज्ञातवास की अवधि में पहचान लिए गए, तो तुम्हें जीवन भर के लिए देश से निकाल दिया जायेगा।’’

राजा कुमार विक्रम वन में पहुँचा। तभी किसी कन्या ने उसे आवाज दी-‘‘युवक, वन में मत जाओ। वहाँ तुम्हारे प्राणों को खतरा है।’’ राज कुमार ने चैंककर इधर-उधर देखा। पर उसे कोई भी नजर नहीं आया। सहसा राज कुमार के सामने एक युवती आकर खड़ी हो गई। उसने कहा-‘‘मैं इस वन के स्वामी राक्षसराज की कन्या मोहिनी हूँ। पर तुम काल के मुँह में क्यों जा रहे हो?’’

राजकुमार मोहिनी के रूप और व्यवहार से प्रभावित हो गया। उसने सारा किस्सा मोहिन को सुना दिया। मोहिनी बोली-‘‘यहाँ से थोड़ी दूरी पर एक झील महल है। किसी समय वह महल शत्रुसेन का था पर मेरे पिता ने उसके परिवार का नाशकर दिया। वह सब जगह आते-जाते हैं, लेकिन वह झील महल में कभी नहीं जाते। वहाँ शत्रुसेन के बाघ-चीते और शेर रहते हैं।’’ यह सुन विक्रम ने झील महल जाने का मन बना लिया।

विक्रम को विदा करते समय मोहिनी की आँखों में आँसू आ गए। वह बोली-‘‘ विक्रम, मैं अपने पिता के अत्याचारों से बहुत दुःखी हूँ। तुम उनको समाप्त कर दो, तो मुझे इस संकट से छुटकारा मिल सकता है। मुझे तुम पर पक्का भरोसा है कि एक दिन तुम मुझे इस मुसीबत से अवश्य छुटकारा दिलाओगे।’’

‘‘मोहिनी, मैं तुम्हारी हर संभव मदद करूँगा। तुम मुझ पर भरोसा रखो।’’-कहते हुए उसने मोहिनी को दिलासा दी और वहाँ से चला गया।

विक्रम महल के परिसर में पहुँचा, तो हाथी ने उसका स्वागत किया। उसने भी हाथी को प्यार से सहलाया। दूसरे पशु-पक्षी भी खुशी से नाचने लगे। भालू ने विक्रम के सामने शहद भरा कलश लाकर रख दिया। बंदरोें ने फलों का ढेर लगा दिया। उसने जी भरकर फल खाए। थोड़ी ही देर में वह पशु-पक्षियों से घुलमिल गया। क्योंकि आश्रम में रहते हुए ही उसने पशु-पक्षियों की भाषा सीख ली थी। अतः उसे उन्हें अपना बनाने में कुछ ही समय लगा।

एक दिन शेर विक्रम को शत्रुसेन ने कक्ष में ले गया। वहाँ एक बड़ा संदूर रखा था। विक्रम ने संदूर में से शत्रुसेन के कपड़े और अस्त्र-शस्त्र निकाल लिए।

एक बार विक्रम पशु-पक्षियों को युद्ध का प्रशिक्षण दे रहा था तभी मोहिनी वहाँ आ गई। विक्रम की मेहनत देख मोहिनी खुश थी। पर शेर मोहिनी को देख गुर्राया। इस पर विक्रम ने उससे कहा- ‘‘मोहिनी हमारी तरह ही राक्षसराज से छुटकारा पाना चाहती है। इसी के कहने पर ही तो मैं तुम लोगों के साथ रह रहा हूँ।’’ यह सुन पशु-पक्षी मोहिनी से प्यार करने लगे। मोहिनी भी उन्हें प्यार करने लगी।

मोहिनी युद्ध की तैयारी देख खुश थी। उसने कहा-‘‘ विक्रम, अब राक्षसराज अपने महल में ही रहेगा। लेकिन उसे वरदान मिला हुआ है कि कोई पशु या आदमी उसे नहीं मार सकता।’’

विक्रम ने कहा- ‘‘इसीलिए मैंने बाज और गिद्धो की भी सेना बनाई है। अब देखना कि मैं राक्षसराज को कैसे समाप्त करूँगा?’’ यह सुन मोहिनी खुशी-खुशी लौट गई।

एक दिन विक्रम ने पशु-पक्षियांे की सेना के साथ राक्षसराज के महल पर धावा बोल दिया। राक्षसराज ने राजकुमार को देखते ही उस पर अग्निबाण चला दिया मगर बाज ने बाण पर झपट्टा मारा, तो बाण उलटे ही राक्षसराज के पैरों में जा लगा। उसके पैर जल गए। अब उसने गदा उठाई। तभी गिद्धों ने उसकी आँखों पर झपट्टा मारा। उसके हाथ से गदा छूट गई और वह उसकी छाती में जा लगी। वह निढाल हो गया।

यह खबर मिलते ही मोहिनी खुशी से झूम उठी। उसे पिता के अत्याचारों से छुटकारा मिल गया था। उसके कहने से विक्रम ने उससे विवाह कर लिया। वे मजे से वहाँ रहने लगे।

कुछ दिन बाद ही राजकुमार का अज्ञातवास पूरा हो गया। राज कुमार और मोहिनी अरूणगढ़ की तरफ चल पढ़े। उनके साथ उनकी पशु-पक्षियों की सेना भी थी।

वे शाम को महल में पहुँचे। वहाँ विक्रम को पता चला कि सौतेली माँ के भाई का राज्याभिषेक हो रहा है। यह सुन उसे क्रोध आ गया। उसका इशारा पाते ही पशु-पक्षी ऊधम मचाने लगे। सौतेली माँ अपने भाई के साथ भागने को थी, तभी शेर ने उसे उसके भाई को मार डाला। प्रजा ने विक्रम को अपना राजा मान लिया। वे उसका जय-जयकार करने लगे।

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बन गया देवता

असीरिया की दजला घाटी में बसंत का मौसम आ गया। जंगल इन्द्रधनुषी फूलों से सज गए थे। हवा भीनी-भीनी गंध से महकने लगी थी।
फूलों की परी थी इकत्रा। उसकी सखियों ने कहा- ‘‘तुम लोग दजला की घाटी में जा रही हैं। वहाँ बसंत मनायेंगे।’’
इकत्रा परी ने कहा - ‘‘हाँ, हमें वहाँ जरूर जाना चाहिए। इस समय असुरराज गिल्मेशा के अत्याचार बहुत बढ़े हुए हैं। असीरिया की जनता अपने जीवन से निराश हो चुकी है। उनके लिए तो वसंत का मौसम भी पतझड़ जैसा ही है। लेकिन क्या यह समय उत्सव मनाने का है?’’
एक परी ने कहा- ’’हमने सुना है, तुम्हारे पास जादू के पाँच फूल है। अत्याचारी के विरूद्ध तुम्हारे फूल हथियार का काम करते हैं।’’
जादुई फूलों का रहस्य देवदूतांे को पता था। उनमें से एक देवदूत धरती पर आया। उसने लोगों से कहा- ‘‘फूलों की परी है इकत्रा। तुम लोग उसकी शरण में आ जाओ। अगर वह तुम्हारी मदद करें, तो अत्याचारी गल्मेशा का आतंक समाप्त किया जा सकता है।’’
‘भला इकत्रा के फूल हथियारों का सामना कैसे करेंगे?’-लोग आपस में कहने लगे।
देवदूत ने कहा- ‘‘वे साधारण फूलों से अलग हैं। उन फूलों की शक्ति के आगे बड़े से बड़े महाबली अत्याचारी भी हार मान जाते हैं।’’
दुःखी जनता ने इकत्रा से प्रार्थना की-‘‘देवी हमें गिल्मेशा के अत्याचारों से बचाओ। गिल्मेशा पर किसी हथियार का असर नहीं पड़ता है।’’
एक दिन गिल्मेशा न्याय माँगने वालों को दण्ड देने के इरादे से चला। इकत्रा ने देखा और सोचा-‘यही समय है कि इसे सबक सिखाया जाए।’ इकत्रा ने गिल्मेशा पर एक फूल फंेका। फूल अंगारों में बदल गया। गिल्मेशा जलने लगा। वह चिल्लाने लगा- ‘‘मुझ बचाओ। मेरा शरीर जल रहा है। मैं किसी को नहीं सताऊँगा। वचन देता हूँ।’’
इकत्रा दयालु थी। उसने गिल्मेशा पर दूसरा फूल फूेंका तो बारिश होने लगी। आग बुझ गई। गिल्मेशा की पीड़ा शांत हो गई। इतना पानी बरसा कि गिल्मेशा ठण्ड से थर-थर काँपने लगा। इकत्रा ने तीसरा फूल फेंका, तो गिल्मेशा का कांपना बन्द हो गया। ठण्ड जाती रही।
दूर खड़े लोग गिल्मेशा को ध्यान से देख रहे थे। इकत्रा के चैथे फूल से गिल्मेशा के सामने शहद की  प्यालियाँ प्रकट हो गई। उसने शहद पिया, तो उसकी भूख-प्यास मिट गई! वह रोने लगा।
‘‘राजा, तुम रो क्यों रहे हो? तुम तो तलवार से भी नहीं डरते, फिर फूलों से क्यों घबराते हो?’’ एक आदमी ने पूछा।
‘‘इकत्रा देवी ने मुझे तलवार से नहीं, अपनी करूणा से वश में कर लिया है। मैं अपने किए पर शर्मिन्दा हूँ। मैंने जनता को बहुत कष्ट पहुँचाया हैं।’’
उस दिन से गिल्मेशा बिलकुल ही बदल गया। लोग उसके अत्याचारोें को भूल गए क्योंकि अब वह एक न्यायप्रिय और उदार राजा बन गया था।
गिल्मेशा में आए इस परिवर्तन को देख, देवी इकत्रा ने उस पर पाँचवाँ फूल फेंका। जैसे ही फूल ने गिल्मेशा को स्पर्श किया, वह मनुष्य से देवता में बदल गया। फूलों के रथ पर बैठाकर इकत्रा उसे आकाश में ले गई।
कहते हैं, जब बसंत आता है तो इकत्रा और गिल्मेशा धरती पर आते हैं और फूल खिलाते हैं।

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छूना है आकाश

मुझे अपनी कक्षा की सभी छात्राओं से प्यार है। मैं इन्हे पूरा समय देती हूँ। केवल कक्षा में ही नहीं, कक्षा के बाद इनके घरों में जाकर भी। मेरे दोनों बच्चों के विवाह हो गये हैं। वे दोनों यहाँ से बहुत दूर समुद्र पार रहते हैं। मेरे पति पिछले वर्ष सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं।
एक सप्ताह पहले मुझे सूचना मिली कि दीपा बहुत बीमार हैं। मैं उसे देखने उसके घर गई। पता चला कि दीपा की माँ का पिछले वर्ष स्वर्गवास हो गया था। दीपा अपनी दो बड़ी बहनों के साथ रहती है। दीपा के पिता रेलवे मंे चपरासी हैं। रेलवे से मिले एक कमरे के क्वार्टर में वे चारों रहते हैं। दीपा मेरी कक्षा की होनहार छात्रा है। दीपा की बड़ी बहन ने मुझे बताया कि पिता को बहुत चिंता है। दीपा का बुखार नहीं उतर रहा है। उसने घर की दूसरी कठिनाइयों के बारे में भी बताया। दीपा से मिलकर मैं लौट आई।
एक माह बीत गया, दीपा स्कूल नहीं आई। मैं फिर उसके घर गई। पता चला कि दीपा को अस्पताल में दाखिल किया गया है। इस बीच दीपा की बड़ी बहन ने कहीं नौकरी कर ली थी। दीपा को दिमागी बुखार बताया गया था। मैं उसे देखने अस्पताल पहुँची। दीपा ने कहा- ‘‘मैडम, अब मैं कभी स्कूल नहीं आऊँगी। मुझे पता हैं, मैं मरने वाली हूँ।’’
दीपा की बात सुनकर मेरा दिल पसीज गया। मैंने डाक्टर से पूछा तो उसने कहा-‘‘दीपा को दिमागी बुखार हैं, लेकिन कोई शक्ति है जो इसे जीवित रखे हुए है।’’
मैं दो दिन बाद दीपा से फिर मिलने गई तो मैंने कहा -‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी? मैं तुम्हें पढ़ाऊँगी और चाहोगी तो तुम्हें अपने घर ले चलूँगी।’’ दीपा चुप हो गई। उसने मुझे एक डायरी दिखाई। उसमें कुछ कविताएँ लिखी हुई थीं। आशा की कविताएँ। मैंने डायरी पढ़ी, तो दीपा को चूमे बिना न रह सकी। उसने अपनी कविताओं में आकाश की बुलंदियों को छूने की बातें लिखी थीं। मैं समझ गई, दीपा की यह रचना शक्ति ही उसे जीवित रखे हुए थी।
मैंने दीपा के पिता से उसे अपनाने की बात की। पहले उन्होंने साफ मना कर दिया कि लोग इसे गलत समझेंगे। दीपा के पिता का कहना था कि लोग कहेंगे पिता अपनी बेटियों की देखभाल नहीं कर पाया। मैंने उन्हें समझा-बुझाकर मनाने का प्रयास किया, लेकिन वह न माने। आखिर मैंने उन्हें इस बात पर राजी कर लिया कि दीपा उनके पास ही रहेगी, लेकिन मैं उसे अपना लूँगी। उसका सारा खर्च मैं उठाऊँगी। दीपा के पिता ने जब यह बात दीपा को बताई, तो वह बहुत खुश हुई।
धीरे-धीरे दीपा का बुखार उतर गया। कुछ दिन बार वह स्कूल आने लगी। बुखार के कारण अब वह उतने अंक नहीं ले पाती थी। जब मैंने उससे पूछा तो उसने जवाब दिया- ‘‘मैडम, आपके कारण मैं आज जीवित हूँ। क्या इतना काफी नहीं?’’ मुझे उसकी बात सुनकर खुशी भी हुई और हैरानी भी। मुझे दीपा का वह मुरझाया चेहरा याद आ गया, जब डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। वही दीपा आज सोच रही है कि मैंने उसे अपनाकर नया जीवन दिया है। सच तो यह था कि जीवन उसके भीतर था कविता के रूप मंे।
एक दिन दीपा ने मुझसे कहा था- ‘‘मुझे अपने पापा तथा दीदी पर बहुत दया आती थी। मुझे लगता था, मुझे भी माँ के साथ मर जाना चाहिए था। मैं खुद को एक फालतू चीज समझती थी, लेकिन आपने मुझे सहारा दिया। अब मेरे दिमाग से सारा बोझ दूर हो गया है।’’
धीरे-धीरे दीपा सामान्य हो गई। समय बीतता रहा। मैं दीपा के लिए जितना कर सकती थी, करती रही।
एक दिन दीपा अचानक मेरे घर आ गई और बोली- ‘‘मैडम रानी, आज से मैं आपकी सेवा में रहूँगी।’’ मैने उससे पूछा- ‘‘क्या तू मुझे माँ या आंटी नहीं कह सकती?’’ इस पर वह बोली - ‘‘मेरे पिता आपको मैडम रानी कहते हैं। वह कहते है कि तुम्हारी मैडम का दिल रानियों जैसा है। इसलिए मैं आपको रानी आंटी या मैडम रानी कह सकती हूँ।’’
दीपा आज बारहवीं कक्षा में है। मैं रिटायर हो चुकी हूँ। अब वह स्वयं पिता का घर छोड़कर मेरे साथ रहने आ गई है। वह जतन से मेरी देखभाल करती है। समुद्र पार गए बेटों की कभी-कभार चिट्ठी आ जाती है। पिछले छह वर्षों में दोंनो बेटे एक बार मिलने आए थे। पैसा नियमित भेज रहे है। हम तीनों का अच्छा गुजारा हो जाता है।

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बैलों की बोली

         बिरजू एक मूर्तिकार था। तरह-तरह की मूर्तियाँ बनाता। देखने में ऐसी लगतीं कि अभी बोल पड़ेंगी। पूरे गाँव में लोग उसकी मूर्तियों की प्रशंसा करते। बच्चों से बिरजू को बहुत लगाव था। वह उन्हें भी तरह-तरह की चीजंे बनाना सिखाता।
यह खबर जमींदार राम सिंह तक भी पहुँची। एक दिन वह चुपचाप बिरजू के घर चले आए। उसने बनाए पशु-पक्षी, आदमी सब एक से बढ़कर एक थे। ऐसा लगता ही नहीं था कि ये मूर्तियाँ हैं। 
बिरजू को उनके आने का पता चला तो वह दौड़ा आया। उसे देख राम सिंह बोले- ‘‘बिरजू, तुम्हारी बनाई मूर्तियाँ देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। पता नहीं था कि हमारे गाँव में इनता बड़ा कलाकार भी रहता है।’’ इसके बाद राम सिंह उससे बहुत देर तक बातें करते रहें।
बिरजू ने जमींदार जी को धन्यवाद दिया। जब वह जाने लगे तो उसने अपनी बनाई गणेश जी की प्रतिमा उन्हें भेंट की।
            कुछ दिन बाद उन्होंने बिरजू को अपने घर बुलावा भेजा। पास ही उनकी बेटी नीलम बैठी थी। राम सिंह ने कहा - ‘‘बिरजू, मेरे एक व्यापारी मित्र सूरजमल शहर में रहते है। मेरा पत्र लेकर उनके पास चले जाओ। वह शहर के धनवान व्यक्तियों में से एक हैं। तुम्हारी मूर्तियाँ बिकवाने की व्यवस्था करा देंगे तो अच्छी आमदनी हो जाएगी।’’
            बिरजू ने जमींदार को धन्यवाद दिया। उन्होंने मूर्तियाँ ले जाने के लिए अपनी बैलगाड़ी भी उसे दे दी। फिर अपनी मूर्तियाँ बैलगाड़ी में रखकर, शहर की ओर चल दिया। सूरजमल का घर ढूँढ़ने में उसे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सूरजमल में उसकी मदद की। जल्दी ही उसकी सारी मूर्तियाँ बिक गई। वह उन्हें धन्यवाद दें। बैलगाड़ी समेत घर वापस आ गया।
            इस तरह उसका शहर आना-जाना शुरू हुआ। जल्दी ही उसके पास खूब धन हो गया। उधर राम सिंह भी बिरजू को पसंद करने लगे थे। उसकी कला से तो वह प्रभावित थे ही। अब उसके पास धन भी हो गया था। उसके बारे में उन्होंने पत्नी और बेटी नीलम से बात की । फिर बिरजू की राय जान, उससे अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया।
            एक बार बिरजू शहर से मूर्तियाँ बेचकर लौट रहा था कि डाकुओं ने आक्रमण कर दिया। उसका सारा धन छीन लिया। कुछ दिन बाद सेठ सूरजमल का स्वर्गवास हो गया। बिरजू के जैसे बुरे दिन शुरू हो गए थे। वह लम्बे समय के लिए बीमार पड़ गया। जो धन उसने जमा किया था, वह खत्म हो गया। नई मूर्तियाँ वह बना नहीं सका। मदद के लिए वह किसी के पास जाना भी नहीं चाहता था। राम सिंह ने उसकी मदद करने की भी कोशिश की मगर उसने स्वीकार नहीं किया। जल्दी ही वह पहले जैसा फटेहाल मंे हो गया। राम सिंह को भी लगा कि शायद उन्हें नीलम के लिए दूसरा लड़का ढूँढ़ना पड़ेगा।
            उन्हीं दिनों गाँव में एक आदमी आया। उसका नाम बिशन था। बिशन काफी चालाक और लालची आदमी था। एक किसान के घर जाकर उसने उससे प्रार्थना की कि वह एक रात उसे अपने यहाँ ठहरने दें। किसान ने उसे अपने यहाँ एक कोठरी में ठहरा दिया। कोठरी के पास ही पशुशाला थी। बिशन पशुओं की भाषा समझ सकता था। आधी रात बीत जाने के बाद उसे आवाज सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना। दो बैल आपस में बातचीत कर रहे थे।
एक बैल कह रहा था -‘‘दुनिया में लोग यदि इस बात को जानते होते तो कोई गरीब नहीं रहता।’’
            ‘‘कौन सी बात।’’- दूसरे बैल ने पूछा।
            ‘‘मुझे दो तोतों की बात सुनकर पता चला है कि इस शहर की पहाड़ियों के नीचे बहुत-सा धन गड़ा है। लोग उसे निकाल लें तो मालामाल हो जाये।’’-पहले बैल ने कहा।
            ‘‘मगर पत्थरों के नीचे गड़ा धन निकलेगा कैसे? यह तो बहुत कठिन काम है।’’ - दूसरा बैल बोला।
            ‘‘यही तो बता रहा हूँ कि यदि लोगों को पता हो तो वे धन निकाल सकते हैं। अमावस्या की रात को ये सारे पत्थर अपना स्थान छोड़कर नीचे घाटी में चले जाते हैं। कुछ समय बाद वे अपने स्थान पर वापस आ जाते हैं। इसी बीच इस धन को निकाला जा सकता है। मगर इस धन को वही निकाल सकता है जिसके पास पांच पत्ती वाला जामुनी रंग का फूल हो। लेकिन इसमें भी एक मुश्किल है।’’ कहता हुआ बैल चुप हो गया। फिर बोला- ‘‘मुश्किल यह कि जो व्यक्ति इस धन को निकालने की कोशिश करता है, पत्थर उसे मार डालते हैं।’’ इसके बाद बैल चुप हो गए।
            बिशन को लगा कि उसके भाग्य तो खुलने ही वाले है। अगले दिन ही अमावस्या थी। सुबह उठते ही किसान से विदा लेकर वह जामुनी रंग वाला फूल ढूँढ़ने चल दिया। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सुबह से शाम हो गई। वह निराश होने लगा कि तभी उसे जामुनी फूल दिखाई दिया। पूरे दिन उसने कुछ खाया- पिया नहीं था। वह बहुत थक गया था मगर रातोंरात धनवान बनने की धुन मेें वह पहाड़ की तरफ दौड़ पड़ा।
वहाँ उसे बिरजू बैठा दिखाई दिया। वह अब कुछ ठीक हो चला था। इसीलिए छैनी-हथौड़ा लेकर आया था जिससे कोई नई मूर्ति बना सके।
बिशन ने बिरजू से पूछा-‘‘तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रहे हो?’’
‘‘मेरी बनाई मूर्तियाँ कभी बहुत पसन्द की जाती थीं लेकिन बहुत दिनों से कुछ कर नहीं सका। सोच रहा हूँ कोई नई मूर्ति बनाऊँ।’’- बिरजू ने कहा।
‘‘मैं तुम्हें धन पाने की एक तरकीब बता सकता हूँ।’’-बिशन बोला।
‘‘कौन सी तरकीब?’’-बिरजू ने पूछा तो बिशन ने सारी बात बता दी। मगर उसे यह नहीं बताया कि पत्थर जब लौटते हैं तो धन निकालने वाला व्यक्ति को जान से मार डालते हैं। बिशन की बात सुन बिरजू को उत्सुकता हुई। वे दोनों एक ओर बैठ गए। बिशन ने बिरजू से कहा कि यदि धन मिल गया, तो आधा हिस्सा वह उसे दे देगा।
चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कभी-कभी कोई जुगनू उड़ता दिखाई दे जाता। आधी रात होते-होते अचानक चारों ओर गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। ऐसा लगा जैसे भूचाल आ गया हो। सारे पत्थर इधर से उधर लुढ़कने लगे। पत्थरों के हटते ही बिशन ने अपने थैले से जामुनी फूल निकाल लिया। जल्दी ही उसे उस स्थान का पता चल गया, जहाँ धन गड़ा हुआ था। उसने बिरजू से उस जगह पर खोदने को कहा। बिरजू खोदने लगा। उसे बहुत सी मोंहरे और हीरे-मोती दिखाई दिये। वह उन्हें थैले में भरने लगा। इतना सारा धन देखकर बिशन को लालच आ गया। वह खुश भी था कि पत्थर जब लौटेंगे तो बिरजू को मार डालंेगे। वह सारा धन खुद ले जा सकेगा।
            तभी बिरजू धन से भरी पोटली लेकर ऊपर आ गया। यह देख बिशन बोला- ‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? अभी तो बहुत खजाना बाकी है।’’
            ‘‘इतना ही बहुत है।’’-कहता बिरजू आगे बढ़ गया। बिशन को उस पर बहुत गुस्सा आया। वह बचे हुए धन को निकालने लगा कि एकाएक पत्थर लौटने लगे। बिशन ने भागने की कोशिश की लेकिन वह बच न सका।
बिरजू को दुःख था कि बिशन नहीं रहा। गाँव जाकर उसने अपने लिए घर बनाया। कलाकारों के लिए एक आश्रम बनवाया, जहाँ रहकर वे साधना कर सकते थे। राम सिंह ने यह देखा तो बहुत शर्मिन्दा हुए। बिरजू से माफी माँगी और नीलम का विवाह उससे कर दिया।

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नहीं चाहिए धन

            भामाशाह मेवाड़ के महाराणा प्रताप के दीवान थे। वह जितने दानवीर थे, उतने ही कुशल योद्धा भी थे। हर कोई उन्हें चाहता था उनके साथ रहने के लिए व्याकुल थे, परन्तु भामाशाह भद्रसेन से अधिक प्रेम करते थे।
            यों कहने को तो भद्रसेन केवल उनके अंगरक्षक थे, परन्तु दीवान जी जितना अपनत्व की भावना उनके साथ रखते थे, शायद उतना उनके कुटुम्बी, परिजनों को भी नसीब नहीं था। इसी कारण अन्य सेवक, अंगरक्षक, मित्र, कुटुम्बी, सभी मन ही मन भद्रसेन से ईष्र्या करते थे। उन सबको आश्चर्य होता था कि भद्रसेन में ऐसा कौन सा गुण है जो किसी में नहीं है और फिर भद्रसेन तो सुंदर भी नहीं थे। फिर भामाशाह ने उन्हें क्यों अपने मुँह लगा रखा है।
            सभी परेशान थे। आखिर एक दिन उनसे रहा नहीं गया, तो सब सलाह-मशविरा कर दीवान जी के पास पहुँचे। इनमें से कुछ वृद्ध थे, तो कुछ प्रौढ़ और नवयुवक भी थे। एक वृद्ध सेवक ने साहस कर कहा- ‘‘अन्नदाता, आज्ञा हो तो हम सब आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं।’’
भामाशाह बोले- ‘‘हाँ-हाँ, निडर होकर कहो।’’
            ‘‘बात यह है कि भद्रसेन में ऐसी क्या विशेष योग्यता है, जिसके कारण आपने उसे अपने निकट रहने का अवसर दे रखा है। इसका कारण हमारी समझ में नहीं आया। इसलिए हम आपकी सेवा में आए है। हमारी जिज्ञासा शांत करें।’’
            यह सुनकर भामाशाह पहले तो मुस्कुराए, फिर बोले- ‘‘वह प्रामाणिक है।’’ लेकिन यह प्रामाणिक क्या होता है?’ किसी की समझ में नहीं आया। भामाशाह बोले-‘ समय आने पर तुम लोग समझ जाओगे।’’
सभी अपने-अपने काम में लग गए। भद्रसेन भी अपना काम करते रहे। अपने स्वामी की सेवा में वह इतना मगन रहते कि न उन्हें भूख लगती, न प्यास। न उन्हें आराम की आवश्यकता महसूस होती और न काम करते-करते उकताहट होती। हर समय उन्हें बस अपने स्वामी के संकेत की प्रतीक्षा रहती है। भामाशाह का संकेत पाकर वह दौड़े-दौड़े आते और पलक झपकते ही काम पूर्ण कर लौट जाते। इसी तरह समय गुजर रहा था।
            एक बार एक युद्ध की समाप्ति के बाद मेवाड़ के दीवान भामाशाह अपनी सांडिनी पर सवार होकर लौट रहे थे। सांडिनी पर कई बोरे स्वर्ण मुद्राओं से ठसाठस लदे हुए थे। उनके पीछे-पीछे भद्रसेन, सेवक, अंगरक्षक और सैनिक भी पैदल चले आ रहे थे। सभी सतर्क थे कि कहीं झाड़ी से निकलकर कोई दुश्मन आक्रमण न कर दें।
            शाम होने को आई थी। मंजिल कुछ ही दूर थी। अचानक भामाशाह ने अपनी सांडिनी रोककर पीछे मुड़कर अपने सेवकों और सैनिकों से कहा-‘‘ साथियों, न जाने कैसे स्वर्ण मुद्राओं से भरे एक बोरे में छेद हो गया है, न जाने कितनी देर से इस बोरे से स्वर्ण मुद्राएँ पीछे गिरती आ रही हैं। लगभग तीन चैथाई स्वर्ण मुद्राएँ एकत्र कर सकते हो। जिसे जितनी मुद्राएँ मिलंेगी, वही उसका मालिक होगा। मुद्राएँ किसी से वापस नहीं ली जायेंगी।’’
            यह कहकर भामाशाह ने अपनी सांडिनी को हांक दिया। सभी सैनिक और सेवक स्वर्ण मुद्राएँ एकत्र करने में लग गए। न जाने कब से मुद्राएँ गिर रही थीं, यही सोचते-सोचते सभी मुद्राएँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पीछे की ओर बढ़ते रहे।
कुछ देर बाद भामाशाह ने पीछे पलटकर देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ। भद्रसेन को छोड़कर और कोई भी सेवक या सैनिक दूर-दूर तक उन्हें नजर नहीं आया। हाँ, भद्रेसन अवश्य पसीने-पसीने हाथ में नंगी तलवार लिए दौड़ते-दौड़ते चले आ रहे थे। यह देखकर भामाशाह मुस्कुराए।
            भामाशाह ने भद्रसेन से पूँछा-‘‘सभी तो मुद्राएँ एकत्र करने चले गए, तुम क्यों पीछे आ रहे हो? क्या तुम्हें मुद्राएँ नहीं चाहिए।’’
            भद्रसेन हाथ जोड़ते हुए कहने लगे-‘‘अन्नदाता मैं तो एक मामूली सेवक हूँ और मेरा काम हर पल आपके साथ रहना है। यह खतरनाक इलाका है, दुश्मन का भरोसा नहीं। क्या पता कब घात लगाए बैठा दुश्मन आक्रमण कर दें? क्या पता आपको कब प्यास लग जाए? तब ऐसे में कौन आपके लिए जल लेकर आएगा? फिर आपके होते हुए मुझे स्वर्ण मुद्राओं की क्या आवश्यकता है। मेरे लिए तो आपका आशीर्वाद ही बहुत है।’’
            अगले दिन सभी भामाशाह के महल में एकत्र हुए। सभी प्रसन्न थे। सबको पर्याप्त स्वर्ण मुद्राएँ मिली थीं। तभी भामाशाह बोले- ‘‘एक बार तुम लोगों ने मुझसे पूछा था, भद्रसेन में ऐसा क्या है? जिसके कारण मैं भद्रसेन को अपने निकट रखता हूँ। इसका उत्तर तुम्हें मिल गया होगा।’’
            भामाशाह की बात सुनकर सभी चकित रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब भामाशाह ने पुनः कहा- ‘‘कल जब हम सब युद्ध से लौट रहे थे तब मैंने जानबूझकर एक बोरे में छेद कर दिया था। फिर मैंने तुम सबकी परीक्षा लेने के लिए कहा था कि जो जितनी मुद्राएँ एकत्र कर सकता है, कर ले। तुम सबके सब मुद्राएँ एकत्र करने में रह गए। तुम सब मेरे सेवक, अंगरक्षक और सैनिक हो। मुद्राओं के लोभ में तुम अपना कर्तव्य भूल गए। तुम यह भी भूल गए कि दुश्मन कभी भी, कहीं से भी आक्रमण कर सकता है। लेकिन भद्रसेन कर्तव्य नहीं भूले, मेरे पीछे-पीछे दौड़ते रहे।’’
            कुछ रूकर भामाशाह ने फिर कहा-‘‘शायद आप लोग समझ गए होंगे कि प्रामाणिक कौन होता है।’’
भामाशाह की बातें सुनकर सभी भौचक्के रह गए। काटो तो खून नहीं। सभी मन ही मन शर्मिन्दा हुए।
तब एक वृद्ध सेवक ने हाथ जोड़कर कहा-‘‘अन्नदाता, हम सब न सिर्फ आपके अपराधी हैं, बल्कि भद्रसेन के भी अपराधी है। हम उनसे ईष्र्या करते थे लेकिन आज हमारी आँखें खुल गई।’’ यह सुन भामाशाह मुसकुरा उठे।

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गरीबा का सपना

            बड़ी सी फूल पौधों की नर्सरी थी। वहीं बड़ा आलीशान घर था। बड़े-बड़े कमरे, आँगन, नौकर चाकर और सामने बड़ा खूबसूरत बगीचा। घर के निकट बस्ती थी। सड़क के एक ओर फूल भरी नर्सरी और हमारा घर था। बस्ती की तरफ खुलने वाली खिड़की खोल लेती और सामने ही रह रहे लुहार परिवार को देखा करती। पति-पत्नी और दो पुत्र।
            आठ-दस वर्ष का गरीबा मेरे आकर्षण का केन्द्र रहता। वह दिन भर कभी अपने पिता की सहायता करता, कभी घर और आसपास की सफाई करता। कभी अपने छोटे भाई को खिलाता रहता। कच्ची बस्ती से अन्य लड़कों की भाँति वह लड़ते या गाली-गलौज करते कभी नजर न आता।
            रोज सुबह जब मेरे बेटे को लेने स्कूल की बस आती, तो मैं गरीबा को बस के पास खड़ा पाती। धीरे-धीरे उसकी और मेरे बेटे की जान पहचान हो गई। मेरा बेटा स्कूल बस में जाता और गरीबा उसका स्कूल बैग पकड़ा देता। फिर दोनों ओर से जोरदार ‘बाय-बाय’ होती और स्कूल बस चल देती।
            एक दिन गरीबा की माँ मेरे पास आई और बताया कि गरीबा कई दिनों से कह रहा था कि भैया की मम्मी से मिलकर आना। मैंने कहा- ‘‘तुम्हारा गरीबा बहुत समझदार है। तुम उसे स्कूल क्यों नहीं भेजती?’’
‘‘कहाँ से भेजें बहन जी, स्कूल की फीस और किताबों का खर्चा कहाँ से पूरा करेंगे?’’-गरीबा की माँ बोली।
कुछ दिनों बाद गरीबा भी अपनी माँ के साथ मेरे पास आया। उसने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते की। ‘‘गरीबा, आज तो तुम नई कमीज में बड़े ही अच्छे लग रहे हो।’’ मैंने कहा।
            गरीबा की माँ बोली-‘‘आज गरीबा का जन्मदिन है। यह आपसे आशीर्वाद लेने आया है।’’
मैंने गरीबा को आशीर्वाद देते हुए पूछा-‘‘ गरीबा आज मैं तुम्हें कुछ उपहार देना चाहती हूँ। बोला, क्या लोगे?’’
            ‘‘कुछ नहीं मम्मी जी, आपका आशीर्वाद ही बहुत है। मैं भैया की तरह उसकी बस में एक दिन के लिए स्कूल जरूर जाना चाहता हूँ।’’
            मैंने सोचा-गरीबा कमीज, खिलौना या टाॅफी मांगेगा, पर यह तो भैया की तरह बस में एक दिन के लिए स्कूल जाना चाहता है। उसे स्कूल भेज ही देना चाहिए। मैंने इसपर हाँ कर दी।
            कुछ दिनों बाद मैं स्कूल गई और गरीबा की इच्छा प्रधानाचार्य के आगे रखी। उन्होंने कहा-‘‘कल बाल सभा का दिन है। आप कल ही गरीबा को भेज दीजिएगा।’’
            घर जाते ही मैंने गरीबा को बुलावा भेजा। जब उसे पता चला कि कल ही स्कूल जाना है, तो वह घबरा कर बोला-‘‘मम्मी जी, मेरे पास कपड़े, जूते कुछ भी नहीं है।’’ तुम जन्मदिन वाली कमीज पहन लेना। मेरे पास खेल के दो जोड़ी जूते हैं, तुम उन्हें पहन लेना। ‘‘मेरा बेटा बोला।
            अगले दिन सुबह ही गरीबा नए जूते और कमीज पहनकर आ गया। हर दस मिनट बाद वह समय पूछता। समय पर बस आई। दोनों बच्चे कूदकर बस में चढ़े। गरीबा ने शरमाकर पास खड़ी माँ से हाथ हिलाकर कहा-‘‘बाय-बाय माँ।’’ और बस चल दी।
            बाल सभा में कई बच्चों ने भाग लिया। फिर प्रधानाचार्य ने गरीबा को बुलाया और कहा-‘‘ तुम, भी कुछ सुनाओ।’’ गरीबा ने राजस्थानी गीत गाकर सबका मन मोह लिया। तरह-तरह के पशु- पक्षियों की बोलियाँ बोलीं और बच्चों से बोलियाँ पहचानने को कहा। सभी बच्चे और अध्यापक गरीबा पर मोहित हो गए।
            प्रधानाचार्य ने उसे निःशुल्क अपने स्कूल में पढ़ने को कहा। पर गरीबा ने कहा-‘‘नहीं, मैं रोज नहीं आ सकता, बाबा की मदद को भी तो कोई चाहिए। आपने मुझे एक दिन आने दिया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ। मैं वास्तव में यह देखना चाहता था कि जब बच्चे बस स्कूल आते हैं तो उन्हें कैसा लगता होगा?’’
बस की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मैं घर से बाहर निकली। बस रूकी, पहले मेरा बेटा फिर गरीबा उतरे। दोनों के चेहरे खिले थे। दोनों ने पलटकर बस की ओर देखा और हाथ हिला दिया। सभी बच्चे चिल्लाए- ‘‘गरीबा-गरीबा फिर स्कूल में आना।’’
            गरीबा ने केवल हाथ हिला दिया। कहा कुछ नहीं। उसने एक नजर मुझ पर डाली। फिर वह अपने झोंपड़ी की ओर चला गया-अपने पिता के काम में हाथ बँटाने के लिए।
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चाचा के आम

            पहलवान चाचा मुहल्ले के छोर पर रहते थे। उनकी उमर पचास से ऊपर थीं, मगर कद-काठी से मजबूत थे। घर में चाची के अलावा कोई था नहीं। दोनों लोगों के लिए उनके बड़े से आँगन में लगे आम, अमरूद के फल और भैंस का दूध काफी था।
            चाचा के जाने के बाद उनके आँगन में बच्चों की भीड़ आ जाती। चाचा की तनी मूछों से भय खाने वाले लड़के चाची से घुले-मिले थे। इस कोने से उस कोने तक आँगन में दौड़ लगाते बच्चों को चाची कभी-कभी आम या अमरूद खाने को दे दिया करती थीं।
एक बार चाची मायके गई हुई थीं। चाचा के आँगन में सिंदूरी आम लटक रहे थे। लड़के आमों की ओर लालच भरी निगाह डालकर रह जाते थे। चाचा का स्वभाव कठोर था। लड़के जानते थे, इनसे कुछ मिलने वाला नहीं। कुछ लड़के चाचा के घर गए भी, मगर कसरत करते चाचा को देखकर उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। उलटे चाचा ने जब पूछा-‘‘कहो, कैसे?’’ लड़कों को लगा, वे उन्हें डांट रहे हैं। लड़के भगवान से मनाते थे कि चाची जल्दी लौट आएँ।
बरसात के साथ जब गदागद आम गिरने लगे, तब तो राजू का धीरज टूटने लगा। उसने धीरू और रज्जन से सलाह की।
            दोपहर में चाचा के बाहर जाने पर राजू आम के पेड़ पर चढ़कर आम गिराने लगा। रज्जन ने आम इकट्ठे करके ढेरी लगानी शुरू की। धीरू दरवाजे के बाहर पहरा देने खड़ा हो गया।
चैकसी के बावजूद तीनों के दिल धड़क रहे थे। धीरू दरवाजे पर खड़ा इधर-उधर बेचैनी से निगाहें डाल रहा था। तभी गली के छोर पर चाचा आते दिखाई दिये।
            उनकी कड़क आवाज सुनकर धीरू भाग खड़ा हुआ। चाचा की आवाज सुनकर राजू और रज्जन के हाथ पाँव फूल गए। राजू पेड़ से कूद पड़ा। रज्जन भी आमों को छोड़कर भागा और कमरे में टांड पर जा बैठा। राजू को कुछ न सूझा, तो कमरे के एक कोने में खड़ा हो गया।
            चाचा ने घर में घुसकर देखा तो पेड़ के नीचे आमों की ढेरी लगी हुई थी और कमरे की कुंडी भी खुली थी। वह दहाड़े-‘‘इसका मतलब है किसी ने आमों पर हाथ साफ किया है। अच्छा बच्चू ठीक है।’’ तभी धीरू दरवाजे पर खड़ा था। ‘‘मगर मुझसे बचकर जाओगे कहाँ?’’-कहने के साथ ही वह अपनी लाठी उठाने के लिए कमरे की ओर बढ़े। कमरे में उन्हें एक कोने में खड़ा राजू दिखाई दिया। उन्होंने राजू को कान पकड़कर खींचा और कहा -‘‘तो यह तुम्हारी शरारत थी?’’
            ‘‘नहीं, नहीं चाचा। मैं चोर नहीं हूँ। मैं तो आम इकटठा कर रहा था। मुझे तो रज्जन जबरदस्ती बुला लाया था। वह देखों, ऊपर टांड पर बैठा है।’’ राजू ने पोल खोल दी।
            चाचा ने राजू को छोड़ दिया। उन्होंने रज्जन को पकड़ा तो राजू भाग गया। रज्जन को नीचे उतारकर उन्होंने एक थप्पड़ जमाया, तो वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसने बताया कि यह सब राजू की ही शरारत थी। चाचा उसे पीटने को तैयार हो रहे थे, तभी चाची आ गई। उनके पीछे-पीछे संदूक उठाए धीरू आ रहा था। चाची ने चाचा के हाथ से रज्जन छुड़ाकर कहा- ‘‘तुम तो अजीब आदमी हो। हर फसल पर इन बच्चों को आम, अमरूद खाने को मिलते हैं। तुमने दिए नहीं, उलटे मारने पर उतारू हो।’’
            ‘‘अच्छा तो तुम्हारी यह फौज तुम्हारे इशारे पर ही चोरी करती है। अरे, आम खाने थे तो मुझसे कह भी तो सकते थे।’’- चाचा गुर्राए।
            ‘‘यह भी कोई कहने की बात थी। आप हमारे चाचा है। चाचा के आम क्या पराए होते हैं, जो हम पूछते।’’- धीरू मुसकुराया।
            चाची के आने के बाद लड़कों को कोई खतरा नहीं था आमों की दावत का आनन्द लिया जा रहा था।

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