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श्रेष्ठता
एक वन में एक ऋषि का आश्रम था। ऋषि अत्यन्त वृद्ध हो गए थे। परलोक गमन का समय निकट आता देख उन्हें यह चिंता सताने लगी कि उनके बाद आश्रम की जिम्मेदारी कौन सँभालेगा?
यूँ तो उनके एक से बढ़कर एक शिष्य थे जिनमें संजय, मृत्युंजय, धनजय तथा दिवाकर नामक शिष्य अत्यन्त विद्धान थे। ऋषि ने इन्हीं चारों में से किसी एक को गुरूपद सौंपना चाहा, लेकिन गुरू जैसे सर्वोच्च पद के लिए केवल वेद शास्त्रों का ज्ञान और कला कौशल ही काफी नहीं बल्कि कुछ परोक्ष सद्गुणों का भी ज्ञान और कला-कौशल की काफी आवश्यकता है।
यह सोचकर ऋषिवर ने चारों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने चारों शिष्यों के अपनी इच्छा से अवगत कराकर कहा-‘‘पुत्रों! मैं तुम चारों से केवल एक प्रश्न करूँगा जिसका उत्तर संतुष्टि कारक होगा, वहीं गुरूपद का अधिकारी होगा।’’
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शिष्यों ने समवेत स्वर में कहा-‘‘प्रश्न पूछने की कृपा कीजिए, गुरूदेव।’’
ऋषि ने कहा-‘‘यदि भगवान तुम लोगों को दर्शन देकर कोई वर माँगने को कहंे, तो क्या माँगोगे?’’
संजय बोला- ‘‘गुरूदेव! मैं तो संसार की समस्त विद्याओं को प्राप्त करने का वर माँगूँगा ताकि मुझसे बड़ा पंडित न हो सके।’’
मृत्यंुजय बोला- ‘‘गुरूवर! मैं समस्त दिव्यास्त्रों की माँग करूँगा ताकि विश्व का सबसे शक्तिशाली पुरूष में ही कहलाऊँ।’’
धनंजय बोला-‘‘विद्यादाता! मैं तो ईश्वर से विपुल धन सम्पदा माँगूँगा। जिससे मेरा और मेरी भावी पीढ़ी का जीवन ऐश्वर्य सुखपूर्वक बीते’’
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दिवाकर कुछ क्षण चुप रहा। फिर ऋषि को प्रणाम कर कहा- ‘‘आचार्य श्रेष्ठ! मैं तो आजीवन ईश्वर की, गुरू की भक्ति तथा आत्म संतोष का वर माँगूँगा। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं।’’
दिवाकर का उत्तर सुनकर ऋषिवर गद्गद हो उठे और उसे गले लगाकर बोले-‘‘वत्स! तू ही मेरा सर्वश्रेष्ठ शिष्य है। गुरूपद पर तू ही शोभित हो सकता है। तेरा कल्याण हो। यशस्वी भव।’’ कहकर ऋषि दिवाकर को आश्रम का भावी गुरू बना दिया। श्रेष्ठ पुरूष वहीं है जो अपनी उन्नति के साथ-साथ सभी का उन्नति की कामना करें।
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