शुक्रवार, 18 जून 2021

Top 40+ Moral Stories in Hindi | नैतिक कहानियाँ हिंदी में


Top 30+ Moral Stories in Hindi/नैतिक कहानियाँ हिंदी में

Moral Stories in Hindi-नैतिक कहानियाँ हिंदी में-प्रिय दोस्तों आपका नैतिक कहानियों के इस विशाल संग्रह में आपका स्वागत है, आशा है कि इस कहानी को पढ़कर नई सीखे अवश्य मिलेगी, जिसका उपयोग अपने दैनिक जीवन किया जा सकता है।


जाट की बुद्धिमानी

एक जाट था। उसके घर में एक गाय बहुत अच्छी और 20 सेर दूध देने वाली थी। दूध उसका बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पंडित जी के मुख में भी पड़ता था। उसका पण्डित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बूढ़ा बाप मरने लगेगा तो इसी का संकल्प करा लूँगा। कुछ दिनों में दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया, साँस बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात प्राण छोड़ने का समय आ पहुँचा। उस समय जाट के इष्ट-मित्र और सम्बन्धी उपस्थित हुए थे। तब पंडित जी ने पुकारा-यजमान! अब तू इसके हाथ से गो-दान किया। जाट दस रूपया निकाल पिता के हाथ में रखकर बोला-पढ़ो संकल्प पंडित जी बोले, वाह! वाह! क्या बाप बार-बार मरता है? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ, जो दूध देती हो, बूढ़ी न हो, सब प्रकार उत्तम हो। ऐसी गऊ का दान कराना चाहिए।

जाट जी हमारे पास तो एक ही गाय है, उसके बिना हमारे लड़के बच्चों का निर्वाह नहीं हो सकेगा, इसलिए इसको न दूँगा। लो इन बीस रूपयों का संकल्प पर दो और इन रूपयों से दूसरी दुधारू गाय ले लेना।

पंडित जी वाह जी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो! क्या अपने बाप को वेतरणी नदी में डूबा कर दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए।

तब तो पंडित जी की ओेर सब कुटुम्बी हो गये, क्योंकि उन सब को पंडित जी ने बहका रखा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान इसी पंडित जी को दिला दिया।

उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया और पंडित जी बच्चा सहित गाय और दुहने की बटलोही को ले अपने घर में गऊ बांध, बटलोही धर, पुनः जाट के घर आया मृतक के साथ श्मशान भूमि में जाकर दाह-कर्म कराया। वहां पर भी कुछ पंडित लीला चलाई, पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राम्हणों ने लूटा और भूक्खडों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब तक जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया। चैदहवें दिन प्रातःकाल पंडित जी के घर पहुंचा। देखा तो गाय दुह, बटलोई भर पंडित जी उठाने की तैयारी में थे, इतने में ही जाट भी पहंुंचे। उनको देख पंडित जी बोले, आइये यजमान बैठिये!

जाट जी-तुम भी पुरोहित जी इधर आओ।

पंडित-अच्छा दूध धरि आऊँ।

जाट जी-नहीं नहीं, दूध की बटलोही भी इधर लाओ। पंडित जी बेचारे जा बैठे और बटलोही सामने धर दी।

जाट जी-तुम बड़े झूठे हो।

पंडिज जी-क्या झूठ किया?

जाटजी- कहो तुमने गाय किस लिये ली थी?

पंडित जी-तुम्हारे पिता को वैतरनी नदी तारने के लिए। 

जाटजी- अच्छा तो तुमने वैतरनी नदी के किनारे गाय क्यों नहीं पहुँचाई? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम गाय अपने घर बांध बैठे। न जाने बाप ने वैतरनी में कितने गोते खाये होंगे।

पडित जी-नहीं, नहीं। वहां इस दान पूण्य के प्रभाव ने दूसरी गाय बनकर उनको उतार दिया होगा।

जाटजी-वैतरनी नदी यहां से कितनी दूर है और किधर की ओर है?

पंडित जी-अनुमान से कोई 30 करोड़ कोस दूर है, क्योंकि 49 कोटि योजन पृथ्वी है और दक्षिण में नैऋत्य दिशा में वैतरणी नदी है।

जाटजी- इतनी दूर तुम्हारी चिट्ठी व तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहां पुण्य की गाय बन गयी और अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ।

पंडित- हमारे पास गरुण पुराण के लेख के सिवा डाक व तार आदि कुछ भी नहीं।

जाट जी- इस गरूण पुराण को हम सच्चा कैसे मानंे?

पंडित जी-जैसे सब मानते हैं।

जाट जी- यह पुस्तक तुम्हारे पुरखाओं ने तुम्हारी जीविका के लिए बनाई हैं, क्योंकि पिता को बिना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरे पास चिट्ठी पत्री या तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुँचा दूँगा और उनको पार उतार पुनः गाय को घर ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के पिया करेंगे- यह कहकर दूध की भरी बटलोही, गाय और बछड़ा लेकर जाट जी अपने घर को चला।

पंडित जी- तुमदान देकर लेते हो। तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा।

जाट जी- चुप रहो, नहीं तो 13 दिन दूध के बिना जितना दुःख हमने पाया है। सब कसर निकाल लूँगा।

तब पंडित जी चुप रहे और जाटजी गाय बछड़ा लेकर अपने घर पहुँचे। जब ऐसे ही जाटजी के से पुरूष हों तो पंडित लीला संसार में न चले।

इस कहानी से पता चलता है कि पंडित लोग किस तरह से मूर्खं को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं। भला जिस मनुष्य ने जीवित माता पिता का कभी सेवा नहीं की और कभी आज्ञा नहीं मानी, कभी उनको सन्तुष्ट और तृप्त नहीं किया, वह मरने पर इस श्राद्ध और पिण्डदान से उनकी आत्मा को कैसे सन्तुष्ट कर सकेगा? यह तो वही बात है।

जियत पिता से दंगम-दंगा, मरे पिता पहुँचाये गंगा।
जियत पिता की न पूंछी बात, मेरे पिता को खीर औं, मातत।
जियत पिता को घूंसे लात, मरे पिता को श्राद्ध करात।
जियत पिता को डंडा लठिया, मरे पिता को तोशक ततकिया।
जियत पिता को कछू न मान, मरत पिता की पिण्डा दान।


सपूत की पहचान

एक गाँव के परघट प एक बार तीन स्त्रियां पानी भरने आई। वहीं एक बुड्ढा यात्री बैठा हुआ सत्तू खा रहा था। तीनों औरतें जमीन पर घड़े रखकर बैठ गई और बुड्ढे को सुना-सुनाकर आपस में इस प्रकार बातें करने लगीं।

एक स्त्री ने दूसरी से कहा-बहन, पंडित पोथाराम का शिष्य मेरा लड़का तोताराम जब से शास्त्री होकर आया है, तब से उसने धूम मचा दी है। सारे गांव में उसी की वाह-वाह हो रही है। वह ऐसा शकुन बताता है कि चटपट लाभ होने लगता है और सुनो, वह आकाश के तारों को गिन-गिनकर उनके नाम बता देता है। परलोक की सभी बातें उसे मालूम हैं। यमराज की कचहरी में कैसे फैसला होता है, इसका भी उसे पता है। भैरव जी के गणों के नाम, यमदूतों के नाम और सभी नरकों के नाम-धाम उसे याद हैं। पता नहीं, वह कैसे भगवान की सब लीलाएं जान लेता है? ब्याह-शादियों में वह शास्त्रार्थ करते-करते विरोधी पंडितों के मुँह नोच लेता है। मैं ऐसे पंडित को जन्म देकर अपने को धन्य मानती हूँ। बाहर से कोई आता है तो मेरी और उंगली उठाकर दूसरों से कहता है। देखों, वहीं शास्त्री जी की माँ हैं। पानी भरने जा रही हैं।

उसकी बातें सुनकर दूसरी स्त्री बोली-अरी सखी, मेरे लाल का हाल सुनो। वैसा पहलवान दस-पांच गांवों में देखने को नहीं मिलता। वह पांच सौ बैठक सवेरे और उतनी ही शाम को करता है। आखाड़ों मंे वह ताल ठोक कर बड़े-बड़े नटों से भिड़ जाता है। बहिन जी, सच मानना, पहलवानी में उसने जितना नाम कमाया उतना क्या कोई कमाएगा। मैं उसे हलवा मालपूआ बनाकर दिन भर खिलाती हूँ।

खा-पीकर वह हाथी की तरह झूमता हुआ जब सैर-सपाटे को निकलता है तो मैं फूली नहीं समाती। अभी मैं पानी भरने आ रही थी कि रास्तें में एक किसान ने मेरी और इशारा करके कहा-बेटा देख, यह उस पहलवान की माँ है, जिसने कल कल्लू नट को चारों खाने चित कर दिया था। सब मान सहेली, मैं बेटे की बड़ाई सुनकर उछलने लगी।

दोनों की बातें सुनकर तीसरी स्त्री चुप रही। इस पर एक ने कहा-तू चुप क्यों है? मालूम होता है तेरा लड़का लायक नहीं निकला।

तीसरी स्त्री बोली-बहिनों, जैसा भी है, मेरे लिए बहुत अच्छा है। उसे नाम कमाने की लालसा नहीं हैं। वह सीधे स्वभाव का आदमी है, दिन भर खेतों में काम करता है, शाम को आकर घर के लिए पानी भर देता है। घर के काम से उसे इतनी छुट्टी ही नहीं मिलती कि वह बाहर नाम कमाए। आज मेरे बहुत कहने पर वह मेला देखने गया है, तभी मुझे पानी भरने आना पड़ा है। मुझे आज इधर आते देखकर देखने वाले इसी बात पर आश्चर्य करते थे कि मुझे पानी भरने के लिए कैसे निकलना पड़ा।

तीनों की बातें समाप्त हुई तो वे जल्दी-जल्दी अपने-अपने घड़ों में पानी भर कर वहां से रवाना हुई। बुड्ढा यात्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। थोड़ी दूर से तीन नवयुवक आते दिखाई पड़े। वे तीनों उन स्त्रियों के लड़के थे, मेले से घर लौट रहे थे। एक ने पहली स्त्री के पास जाकर कहा-माँ, मैं अच्छी साइड से घर की ओर जा रहा हूँ, रास्ते में भरा घड़ा मिलना शुभ है।

यह कहकर वह जल्दी-जल्दी अपने घर की ओर चला। दूसरे ने दूसरी स्त्री से कहां-माँ, मैं मेले के दंगल में बाजी मारकर आ रहा हूँ। जल्दी पानी लेकर घर आना, मुझे भूख लगी है।

यह कहता हुआ वह भी आगे बढ़ गया। इसके बाद तीसरा युवक तीसरी के पास आया और उसके हाथ से पानी का घड़ा लेकर बोला-माँ, तू क्यों पानी भरने चली आई, मैं तो आ ही रहा था।

घड़ा लेकर वह घर की ओर चला। तब अपने-अपने बेटों की ओर इशारा करके स्त्रियों ने साथ चलने वाले बुड्ढे से पूछा-बाबा, हमारे बेटों के बारे में तुम क्या कहते हो?

बुड्ढा अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ बोला- तुम लोग अपने-अपने बेटों के बारे में चाहे जो कहो, मेरी राय में इन तीनों में केवल एक ऐसा है जिसे बेटा कहा जा सकता है। पहले दो तो अपनी-अपनी माँ के पेट से निकल कर उनसे बहुत दूर हो गए हैं। तीसरा शरीर से भिन्न होकर भी माँ के मन से अपने मन को मिलाए हुए है। जिसमें आत्मीयता है, मैं उसी को सबूत मानता हूँ।

दोनों स्त्रियों के मुँह छोटे होकर गर्दनों से इस तरह लटक गए जैसे पेड़ से चमगादड़। तीसरी स्त्री का मुंह पूर्णमासी के चांद की तरह ऊपर उठने लगा।

दिल के खोट

एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफी थक चुकी तो पास से जाते हुए एक घुड़सवार से दीनतापूर्वक बोली-

‘‘भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़े पर रख ले और जो उस चैराहे पर प्याऊ मिले, वहां दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ। मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती है।’’

घुड़सवार ऐंठकर बोला- हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते फिरे? और यह कहकर वह घोड़ेे को ले आगे बढ़ गया। बुढ़िया बेचारी धीरे-धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर घुड़सवार को ध्यान आया कि गठरी छोड़कर बड़ी गलती की। गठरी उस बुढ़िया से लेकर प्याऊ वाले को न दे यदि मैं आगे चलता बनता, तो कौन क्या कर सकता था यह ध्यान आते ही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़िया के पास आया और बड़े मधुर वचनों में बोला-

‘‘ला बुढ़िया माई, तेरी यह गठरी ले चलूँ, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है, प्याऊँ पर देता जाऊंगा।’’

बुढ़िया बोली-‘‘नहीं बेटा, वह बात तो गई, जो तेरे दिल में कह गया है वह मेरे कान में कह गया है। जा अपना रास्ता नाप! मैं तो धीरे-धीरे पहुंच जाऊंगी।’’

घुड़सवार मनोरथ पूरा न होता देख अपना सा मुँह लेकर चलता बना।


ईष्र्या का परिणाम

दो पंडित दक्षिणा प्राप्त करने की नियम से एक सेठ के यहाँ पहुचें

विद्वान समझकर सेठ साहब ने उनकी काफी आवभगत की। उनमें से एक पंडित जब स्नान वगैरह के लिए गए तो सेठ जी दूसरे पंडित से बोले-

‘‘महराज! ये आपके साथी तो महान विद्वान मालूम होते है।’’

पंडित जी में इतनी उदारता कहां जो दूसरे की प्रशंसा सुन लें। मुंह बिगाड़कर बोले-‘‘विद्वान तो इसके पड़ौस में भी नहीं होते। यह तो निनरा बैल है।’’

सेठ जी चुप हो गये। जब उक्त पंडित संध्या वगैरह में बैठे तो पहले पंडित जी से बोले-‘महाराज आपके साथी तो प्रकाण्ड विद्वान नजर आये।

ईष्र्यालु पण्डित अपने हृदय की गन्दगी को बिखेरते हुए बोला-‘‘अजी, विद्वान-उद्वान कुछ नहीं, कोरा गाध है।’’

भोजन समय एक के आगे घास और दूसरे के आगे भूस रखवा दिया गया। पण्डितों ने देखा तो आग बबूला हो गए। बोले-‘‘सेठजी! हमारा यह अपमान, इतनी बड़ी घृष्टता!’’

सेठ जी हाथ जोड़कर बोले-‘‘महाराज! आप ही लोगों ने तो एक दूसरे को गधा और बैल बतलाया है। अतः गधे और बैल के योग्य खुराक मैंने सामने रख दी। आप ही बतलाइए, इसमें मेरा क्या कुसूर है? मैं तो आप दोनों को ही विद्वान समझता था, पर वास्तविक बात तो आपने स्वयं ही बतला दी।’’

सेठ जी की बात से पंडित बड़े लज्जित हुए और पछताते हुए मन में कहने लगे-‘‘ वास्तव में जो अपने साथी को बढ़ा हुआ नहीं देख सकता, वह स्वयं भी नहीं बढ़ सकता। स्वयं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अपने साथियों की प्रतिष्ठा करना, उन्हें बढ़ाना, अत्यावश्यक है। ईष्र्यालु मनुष्यों को हमारे जैसी ही गति होती हैं।


दुर्बलता का पाप

भेड़िया नदी के किनारे पानी पी रहा था कि उसने देखा- नीचे की तरफ, बहाव की ओर एक भेड़ का बच्चा पानी पा रहा है। उसे देखते ही झट मुँह में पानी भर आया बोला-

‘‘क्यों बे! पानी को जूठा क्यों कर रहा है। देखता नहीं हम पानी पी रहे हैं।’’

भेड़ का बच्चा बोला-‘चचा! आप उपर की तरफ पानी पी रहे हैं, आपका जो जूठा पानी बहकर आ रहा है मैं तो उसे पी रहा हूँ।’’

भेड़िया बालक लड़ने का कोई बहाना न पाकर बोला- ‘‘अच्छा, तू यह तो बता कि मैंने एक साल हुए हमें गाली क्यों दी थी?’’

भेड़ बालक सकपकाकर बोला-‘‘चचा! मेरी तो उम्र ही बमुतिश्कल छः महीने की है, भला एक साल पहले मैं आपको गाली कैसे दे सकता था?’’

भेड़िया खीझकर बोला-‘‘अच्छा तेरी माँ मुझे कल कोस क्यों रही थी?’’

भेड़ का बच्चा बोला-‘‘चचा! उसे तो मरे हुए भी एक माह हो गया, वह आपको कल कहां से कोसने आती?’’

भेड़िए ने देखा कि भेड़ का बच्चा बड़ा चालाक है, किसी बात पर जमने नहीं देता। अतः झंुझलाकर-‘‘क्यों वे छोकरे, तू इतनी देर से हमारा सामना क्यों कर रहा है?’’ कहा और उसे मार डाला।

तब पेड़ पर बैठी हुई मैना ने तोते से कहा-‘‘देखा, निर्बल सबल के साथ कितना ही सभ्यतापूर्ण औा सच्चाई का व्यवहार करे, वह सुरक्षित रह नहीं सकता। भेड़ जब तक बनी रहेगी उसे खाने को भेड़िये पैदा होते ही रहेंगे।’’


लालची राजा

यूरोप मंे यूनान नाम एक देश है। यूनान में पुराने समय से मीदास नाम का एक राजा राज्य करता था। राजा मीदास बड़ा ही लालची था। अपनी पुत्री को छोड़कर उसे दूसरी कोई वस्तु संसार में प्यारी थीं तो बस सोना ही प्यारा था। वह रात में सोते-सोते भी सोना इकट्ठा करने का स्वप्न देखा करता था।

एक दिन राजा मीदास अपने खजाने में बैठा सोने की ईंटे और अशर्फियाँ गिन रहा था। अचानक वहां एक देवदूत आया। उसने राजा से कहा-‘‘मीदास! तुम बहुत धनी हो।’

मीदास ने मुंह लटकाकर उत्तर दिया- मैं धनी कहां से हूँ। मेरे पास तो यह थोड़ा सा सोना है।’

देवदूत बोला-‘तुम्हें इतने सोने से भी संतोष नहीं। कितना सोना चाहिए तुम्हें?’

राजा ने कहा- मैं तो चाहता हूँ कि मैं जिस वस्तु को हाथ से स्पर्श करूँ वहीं सोने की हो जाय।

देवदूत हँसा और बोला-‘अच्छी बात! कल सवेरे से तुम जिस वस्तु को छुओगे, वहीं सोने की हो जाएगी।’

उद दिन रात में राजा मीदास को नींद नहीं आयी। बड़े सवेरे वह उठा। उसने एक कुर्सी पर हाथ रखा, वह सोने की हो गयी। एक मेज को छुआ, वह सोने की बन गयी। राजा मीदास प्रसन्नता के मारे उछलने और नाचने लगा। वह पागलों की भांति दौड़ता हुआ अपने बगीचे में गया और पेड़ों को छूने लगा। उसने फूल, पत्ते, डालियाँ, गमले छुए। सब सोने के हो गये। सब चमाचम चमकने लगे। मीदास के पास सोने का पार नहीं रहा।

दौड़ते-उछलते मीदास थक गया। उसे अभी तक यह पता ही नहीं लगा था कि उसके कपड़े भी सोने के होकर बहुत भारी हो गये हैं। वह प्यासा था और भूख भी उसे लगी थी। बगीचे से अपने राजमहल लौटकर एक सोने की कुर्सी पर वह बैठ गया। एक नौकर ने उसके आगे भोजन और पानी लाकर रख दिया। लेकिन जैसे ही मीदास ने भोजन को हाथ लगाया, सब भोजन सोना बन गया। उसने पानी पीने के लिए गिलास उठाया तो गिलास और पानी सोना हो गया।

मीदास के सामने सोने की रोटियाँ, सोने के चावल, सोने के आलू आदि रखे थे और वह भूखा था, प्यासा था। सोना चबाकर उसकी भूख नहीं मिट सकती थी।

मीदास रो पड़ा। उसी समय उसकी पुत्री खेलते हुए वहां आयी। अपने पिता को रोते देख वह पिता की गोद में चढ़कर उसके आँसू पोंछने लगी। मीदास ने पुत्री को अपनी छाती से लगा लिया। लेकिन अब उसकी पुत्री वहां कहां थी। मीदास की गोद में तो उसकी पुत्री की सोने की इतनी वजनी मूर्ति थी कि उसे वह गोद में उठाये भी नहीं रख सकता था। बेचारा मीदास सिर पीट-पीटकर रोने लगा। देवदूत को दया आ गयी। वह फिर प्रकट हुआ। उसे देखते ही मीदास उसके पैरों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर  प्रार्थना करने लगा-‘आप अपना वरदान वापस लौटा लीजिए।’

देवदूत ने पूछा-‘मीदास! अब तुम्हें सोन चाहिए। बताओ तो एक गिलास पानी मूल्यवान हैं या सोना? एक टुकड़ा रोटी भली या सोना?’

मीदास ने हाथ जोड़कर कहा-‘मुझे सोना नहीं चाहिए? मैं जान गया कि मनुष्य को सोना नहीं चाहिए। सोने के बिना मनुष्य को कोई काम नहीं अटकता, किन्तु एक गिलास पानी और एक टुकड़े रोटी के बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता। अब सोने का लोभ नहीं करूँगा।’

देवदूत ने एक कटोरे में जल दिया और कहा-‘इसे सब पर छिड़क दो।’

मीदास न वह जल अपनी पुत्री पर, मेज पर, कुर्सी पर, भोजन पर,  पानी पर और बगीचे के पेड़ों पर छिड़क दिया। सब पदार्थ जैसे पहले थे, वैसे ही हो गये।


पिता और पुत्र

एक जवान बाप अपने छोटे पुत्र को गोद में लिये बैठा था। कहीं से उड़कर एक कौआ उनके सामने खपरैल पर बैठ गया। पुत्र ने पिता से पूछा-‘यह क्या है?’

पिता - ‘कौआ है।’

पुत्र ने फिर पूछा -‘यह क्या है?’

पिता ने फिर कहा -‘कौआ हैं।’

पुत्र बार-बार पूछता-‘यह क्या है’

पिता स्नेह से बार-बार कहता था-‘कौआ है।’

कुछ वर्षों में पुत्र बड़ा हुआ और पिता बूढ़ा हो गया। एक दिन पिता चटाई पर बैठा था। घर में कोई उसके पुत्र से मिलने आया। पिता जी ने पूछा-‘कौन आया है।’

पुत्र ने नाम बता दिया। थोड़ी देर में कोई और आया और फिर पिता ने फिर पूछा। इस बार झल्लाकर पुत्र न कहा-‘आप चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते। आपको कुछ करना-धरना है तो नहीं। कौन आया? कौन गया? यह टायं-टायं दिन भर क्यों लगाये रहते हैं।

पिता ने लम्बी सांस खींची। हाथ से सिर पकड़ा। बड़े दुःख भरे स्वर में धीरे-धीरे वह कहने लगा-‘मेरे एक बारे पूछते थे एक ही बात-यह क्या है? मैंने कभी तुम्हें झिड़का नहीं। मैं बार-बार तुम्हें बताया-‘कौआ है।’

अपने माता-पिता का तिरस्कार करने वाले ऐसे लड़के बुरे माने जाते हैं। तुम सदा इस बात का ध्यान रखो कि माता-पिता ने तुम्हारे पालन पोषण में कितना कष्ट उठाया है और तुमसे कितना स्नेह किया है।

सफेद हंस

दुर्गादास था तो धनी किसान, किन्तु बहुत आलसी था। वह न अपने खेत देखने जाता था, न खलिहान। अपनी गाय, भैसों की भी खोज खबर नहीं रखता था। और न अपने घर के सामानों की ही देखभाल करता था। सब काम वह नौकरों पर छोड़ देता था। उसके आलस और कुप्रबन्ध से उसके घर की व्यवस्था बिगड़ गयी। उसकी खेती में हानि होने लगी। गायों के दूध, घी से भी उसे कोई अच्छा लाभ नहीं होता था।

एक दिन दुर्गादास का मित्र हरिश्चन्द्र उसके घर आया। हरिश्चन्द्र ने दुर्गादास के घर का हाल देखा। उसने यह समझ लिया कि समझाने से आलसी दुर्गादास अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा। इसलिए उसने अपने मित्र दुर्गादास की भलाई करने के लिए उससे कहा-‘मित्र! तुम्हारी विपत्ति देखकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। तुम्हारी दरिद्रता को दूर करने का एक सरल उपाय मैं जानता हूँ।

दुर्गादास-‘कृपा करके वह उपाय तुम मुझे बता दो। मैं उसे अवश्य करूंगा।’

हरिश्चन्द्र-‘सब पक्षियों के जागने से पहले ही मानसरोवर पर रहने वाला एक सफेद हंस पृथ्वी पर आता है। वह दोपहर दिन चढ़े लौट जाता है। यह तो पता नहीं कि कब कहां आवेगा, किन्तु जो उसका दर्शन कर लेता है उसको कभी किसी की कमी नहीं होती।’

दुर्गादास-‘कुछ भी हो, मैं उस हंस के दर्शन अवश्य करूंगा।’

हरिश्चन्द्र चला गया। दुर्गादास दूसरे दिन बड़े सवेरे उठा। वह घर से बाहर निकला और हंस की खोज में खलिहान में गया। वहां उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेर से गेहूँ अपने ढेर में डालने के लिए उठा रहा है। दुर्गादास को देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा मांगने लगा।

खलिहान से वह घर लौट आया और गौशाला में गया। वहां का रखवाला गाय का दूध दुहकर अपनी स्त्री के लोटे में डाल रहा था। दुर्गादास ने उसे डांटा। घर पर जलपान करके हंस की खोज मे ंवह फिर निकला और खेत पर गया। उसने देखा कि खेत पर अब तक मजदूर आये ही नहीं थे। वह वहां रूक गया। जब मजदूर आये तो उन्हें देर से आने का उसने उलाहना दिया। इस प्रकार वह जहां, वहीं उसकी कोई न कोई हानि रूक गयी।

सफेद हंस की खोज में दुर्गादास प्रतिदिन सवेरे उठने और घूमने लगा। अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे। उसके यहां चोरी होना बन्द हो गयी। पहले वह रोगी रहता था, अब उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया जिस खेत से उसे दस मन अन्न मिलता था, उससे 50 मन मिलने लगा।

एक दिन दुर्गादास का मित्र हरिश्चन्द्र उसके घर आया। दुर्गादास ने कहा-मित्र! सफेद हंस तो मुझे अब तक नहीं दिखा, किन्तु उसकी खोज में लगने से मुझे लाभ बहुत हुआ है।

हरिश्चन्द्र हंस पड़ा और बोला-‘परिश्रम करना ही वह सफेद हंस है। परिश्रम के पंख सदा उज्जवल होते हैं। जो परिश्रम न करके अपना काम नौकरों पर छोड़ देता है, वह हानि उठाता है और जो स्वयं परिश्रम करता है तथा जो स्वयं नौकरों की देखभाल करता है, वह सम्पत्ति और सम्मान पाता है।’

लालची बन्दर

एक बन्दर एक मनुष्य के घर प्रतिदिन आता था और ऊधम करता था। वह कभी कपड़े फाड़ देता, कभी कोई बर्तन उठा ले जाता और कभी बच्चों को नोच लेता। वह खाने-पीने की वस्तुयें ले जाता था, इसका दुःख उन घर वालों को नहीं था, किन्तु उस बन्दर के उपद्रव से वे तंग आ गये थे।

एक दिन घर के स्वामी ने कहा-‘मैं इस बन्दर को पकड़कर बाहर भेज दूँगा।’ उसने एक छोटे मुँह की हांडी मंगायी और उसमें भुने चने डालकर हांडी को भूमि में गाड़ दिया। केवल हांडी का मुंह खुला हुआ था। सब लोग वहां से दूर चले गये।

वह बंदर घर में आया। थोड़ी देर इधर-उधर कूदता रहा। जब उसने गड़ी हुई हांडी में चने देखे तो हांडी के पास आकर बैठ गया। चने निकालने के लिए उसने हांडी मे हाथ डाला और मुटठी में चने भर लिए। हांडी का मुंह छोथा था। उसमें से बंधी मुटठी निकल नहीं सकती थी। बंदर मुटठी निकालने के लिए जोर लगाने और कूदने लगा। वह चिल्लाया और उछला, किन्तु लालच के मारे मुटठी के चने उसने नहीं छोड़े।

बंदर को घर के स्वामी ने रस्सी से बांध लिया और बाहर भेज दिया। चनों का लालच करने से बंदर पकड़ा गया। इसी से कहावत है-‘लालच बुरी बला है।’

मेल का बल

अपने देश में ऐसे बहुत से नगर और गांव हैं, जहां बहुत थोड़े पेड़ हैं। यदि वहा गाय बैल भी कम हों और गोबर थोड़ा हो तो रसोई बनाने के लिए लकड़ी या पहले बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।

एक छोटा सा बाजार था। उसके आप-पास पेड़ कम थे और बाजार में किसानों के घर न होने से गाय, बैल भी थोड़े थे जलाने के लिए लकड़ी और उपले वहां के लोगों को खरीदना पड़ता था। दो तीन दिन वर्षा हुई थी, इससे गांवों से कोई मजदूर बाजार में लकड़ी या उपला बेचने नहीं आया था। इससे कई घरों में रसोई बनाने का ईधन ही नहीं बचा था।

उस गांव के दो लड़के, जो सगे भाई थे, अपने घर के लिए सूखी लकड़ी ढूंढने निकले। उनके पिता घर पर नहीं थे। उनकी माता बिना सूखी लकड़ी के कैसे रोटी बनाती और कैसे अपने लड़कों को खिलाती। दोनों लड़के अपने पिता के लगाये आम के पेड़ के नीचे गये। वहां उन्होंने देखा कि आम की मोटी सूखी डाल आंधी से टूटकर नीचे गिरी है।

बड़े लड़के ने कहा-लकड़ी तो मिल गयी, लेकिन हम लोग इसे कैसे ले जायेंगे?

छोटे ने कहा-हम इसे छोड़कर जायेंगे तो कोई दूसरा उठा ले जायेगा।

लेकिन वे क्या करते। बड़ा भाई दस वर्ष का था और छोटा साढ़े आठ वर्ष का। इतनी बड़ी लकड़ी उनसे उठ नहीं सकती थी। इतने में छोटे लड़के ने देखा कि सूखी लकड़ी से गिरे एक मोटे बड़े सफेद कीड़े को, जो कि मर गया है, बहुत सी चींटियां उठाये लिये जा रही हैं। छोटा लड़का चिल्लाया भैया! यह क्या है?

बड़े ने कहा-ये तो चींटियां कीड़े को ले जा रही हैं। 

छोटा भाई बोला इतनी चींटियां कीड़े को कैस ले जाती हैं?

बड़े भाई ने कहा-देखो तो कितनी चींटियाँ हैं। ये सब मिलकर इस कीड़े को ले जाती हैं। बहुत सी चींटियां मिलकर तो मरे हुए सांप को भी घसीट ले जाती हैं।

चींटियां कीड़े को धीरे-धीरे खिसका रही थी। कीड़ा मोटा था। वह बार-बाल लुढ़क पड़ता था। कभी-कभी दस-पांच चीटियां उस कीड़े को हिलाकर झट दबी चींटियों को निकाल देती थीं। काली-काली चींटियां थकने का नाम ही नहीं लेती थीं। लड़कों के देखते-देखते वे कीडे़ की दूर तक धीरे-धीरे सरकाकर ले गयीं।

छोटा लड़का तो प्रसन्न हो गया। उसने ताली बजायी और कूदने लगा। फिर वह आम से गिरी सूखी लकड़ी पर जाकर बैठ गया और बोला-भैया! हम लोग क्या चीटियों से भी गये बीते हैं। तू जाकर अपने मित्रों को बुला ला। मैं यहां बैठता हूँ। हम सब लड़के मिलकर लकड़ी उठा ले जायेंगे।

बड़ा लड़का बाजार में गया और अपने मित्रों को बुला लाया। बहुत से लड़के लगे और उन्होंने उस भारी लकड़ी को लुढ़काना और ठेलना प्रारम्भ किया। सबने लगकर वह लकड़ी उन दोनों भाइयों के घर पहुंचा दी।

उन लड़को की माता ने अपने पुत्रों के साथ आये लड़कों को मिठाई दी और कहा-बच्चों! मेल में बहुत बल होता है। तुम लोग मिलकर कठिन से कठिन काम कर सकते हो और तुम लोग मिलकर रहोगे तो कोई भी तुम्हारी कोई हानि नहीं कर सकेगा। आपस में हिलकर रहने से तुम लोगों का मन भी प्रसन्न रहेगा और तुम्हारे काम भी सरलता से हो जाया करेंगे।

जैसा संग वैसा रंग

एक बाजार में एक तोता बेचने वाला आया। उसके पास दो पिंजड़े थे। दोनों में एक-एक तोता था। उसने एक तोते का मूल्य रखा था पांच सौ रूपये और एक का रखा था पांच आने पैसे। वह कहता था कि कोई पहिले पांच आने वाले को लेना चाहे तो ले जाय, लेकिन कोई पहले पांच सौ रूपये वाले को लेना चाहेगा तो उसे दूसरा भी लेना पड़ेगा।

वहां के राजा बाजार में आये। तोते वाले की पुकार सुनकर उन्होंने हाथी रोककर पूछा- इन दोनों के मूल्यों में इतना अन्तर क्यों हैं?

तोते वाले ने कहा-यह तो आप इनको ले जाये तो अपने आप पता लग जायेगा।

राजा ने तोते ले लिए। जब रात में वे सोने लगे तो उन्होंने कहा कि पांच सौ रूपये वाले तोते का पिंजड़ा मेरे पलंग के पास टांग दिया जाये। जैसे ही प्रायः चार बजे, तोने ने कहना आरम्भ किया-राम, राम, सीतराम। तोते ने खूब सुन्दर भजन गाये। सुन्दर श्लोक पढ़े। राजा बहुत प्रसन्न हुए।

दूसरे दिन उन्होंने दूसरे तोते का पिजड़ा पास रखवाया। जैसे ही सवेरा हुआ, उस तोते ने गंदी-गंदी गालियां बकनी आरम्भ की। राजा को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने नौकर से कहा इस दुष्ट को मार डालो।

पहिला तोता पास ही था। उसने नम्रता से प्रार्थना की राजन्! इसे मत मारो। यह मेरा सगा भाई है। हम दोनों एक साथ जाल में पड़े थे। मुझे एक संत ने ले लिया। उनके यहाँ मैं भजन सीख गया। इसे एक म्लेच्छ ने ले लिया। वहां इसने गाली सीख ली। इसका कोई दोष नहीं है, यह तो बुरे संग का नतीजा है। राजा ने उस रददी तोते को मारा नहीं, उसे उड़ा दिया।

रीछ की समछदारी।

 वह शिकार खेलने गया था। लम्बी मार की बंदूक थी और कंधे पर कारतूसों की पेटी पड़ी थी। सामने ऊँचा पर्वत दूर तक चला गया था। पर्वत से लगा हुआ खड्ढा था, कई हजार फीट गहरा। पतली सी पगडंडी पर्वत के बीच से खड्डे के उस पार तक जाती थी। उस पार जंगली बेर हैं और इस समय खूब पके हैं। वह जानता था कि रीछ बेर खाने जाते होंगे।

उसने देखा, एक छोटा रीछ इस पार से पगडंडी पर होकर उस पार जा रहा है। गोली मारने से रीछ खड्डे में गिर पड़ेगा। कोई लाभ न देखकर वह चुपचाप खड़ा रहा। दूरबीन लगाते ही उसने देखा कि उस पार से उसी पगडंडी पर दूसरा बड़ा रीछ इस पार को आ रहा है।

दोनों लड़ेंगे और खड्डे में गिरकर मर जायेंगे। वह अपने आप बड़बड़ाया। पगडंडी इतनी पतली थी कि उस पर से न तो पीछे लौटना सम्भव था और न दो एक साथ निकल सकते थे। वह गौर से देखने लगा।

एक को गोली मार दूँ, लेकिन दूसरा चैंक जायेगा और चैंकते ही वह भी गिर जायेगा। देखने के सिवा कोई रास्ता नहीं।

दोनों रीछ आमने-सामने हुए। पता नहीं क्या वाद-विवाद करने लगे अपनी भाषा में। पांच मिनट में ही उनका मलमलाना बंद हो गया और शिकारी ने देखा कि बड़ा रीछ चुपचाप जैसे थे, वैसे ही बैठ गया। छोटा उसके ऊपर चढ़कर आगे निकल गया और तब बड़ा उठ खड़ा हुआ।

ओह, पशु इतना समझदार होता है और मूख मनुष्य आपस में लड़ते हैं। शिकारी बिना गोली चलाये लौट आया। उसने शिकार करना छोड़ दिया।

‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई’

मुझे मनुष्य चाहिए

एक मन्दिर था आसाम में। खूब बड़ा मन्दिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा उसका प्रबन्धक प्रधान पुजारी मर गया। मन्दिर के महन्त को दूसरे पुजारी की आवश्यकता हुई। उन्होंने घोषणा कर दी कि जो कल सवेरे पहले पहर आकर यहीं पूजा सम्बन्धी जांच में ठीक सिद्ध होगा उसे पुजारी रखा जाएगा।

मन्दिर बड़ा था। पुजारी को बहुत आमदनी थी।

बहुत से ब्राम्हण सवेरे पहुंचने के लिए चल पड़े। मन्दिर पहाड़ी पर था। एक ही रास्ता था। उस पर कांटे और कंकड़-पत्थर थे। ब्राम्हणों की भीड़ चली जा रही थी मन्दिर की ओर। किसी प्रकार कांटे और कंकड़ों से बचते हुए लोग जा रहे थे।

सब ब्राम्हण पहुंच गये। महन्त ने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान का प्रसाद मिला। सबसे अलग-अलग कुछ प्रश्न और मंत्र पूछे गए। अन्त में परीक्षा पूरी हो गयी। जब दोपहर हो गयी और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान ब्राम्हण वहां आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीने से भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था। 

महन्त ने कहा तुम बहुत देर से आये।

वह ब्राम्हण बोला- मैं जानता हूँ। मैं केवल भगवान का दर्शन करके लौट जाऊंगा।

महन्त उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले तुम जल्दी क्यों नहीं आये?

उसने उत्तर दिया घर से बहुत जल्दी चला था। मन्दिर के मार्ग में बहुत कांटे थे और पत्थर भी थे। बेचारे यात्रियों को उनसे कष्ट होता। उन्हें हटाने में देर हो गयी।

महन्त ने पूछा- अच्छा, तुम्हें पूजा करना आता है?

उसने कहा-भगवान को स्नान कराके चन्दर-फूल चढ़ा देना, धूपदीप जला देना तथा भोग सामने रखकर पर्दा गिरा देना और शंख बजाना तो जानता हूँ।

और मंत्र? महन्त ने पूछा।

वह उदास होकर बोला- भगवान से नहाने खाने को कहने के लिए मंत्र भी होते हैं, यह मैं नहीं जानता। सब पंडित हंसने लगे कि यह मूर्ख भी पुजारी बनने आया है।

महन्त ने एक क्षण सोचा और कहा- पुजारी तो तुम बन गये। अब मंत्र सीख लेना, मैं सिखा दूँगा। मुझसे भगवान ने स्वप्न में कहा है कि मुझे मनुष्य चाहिए।

हम लोग मनुष्य नहीं है? दूसरे पंडितों ने पूछा। वे लोग महन्त पर नाराज हो रहे थे। इतने पढ़े-लिखे विद्वानों के रहते महन्त एक ऐसे आदमी को पुजारी बना दे, जो मंत्र भी न जानता हो, यह पंडितों का अपमान की बात जान पड़ती थी।

महन्त ने पण्डितों की ओर देखा और कहा अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं। बहुत से पशु बहुत चतुर भी होते हैं। लेकिन सचमुच मनुष्य तो वहीं हैं, जो दूसरों को सुख पहुँचाने का ध्यान रखता है, जो दूसरों को सुख पहंुचाने के लिए अपने स्वार्थ और सुख को छोड़ सकता है।

पंडितों का सिर नीचे झुक गया। उन लोगों को बड़ी लज्जा आयीं। वे धीरे-धीरे उठे और मन्दिर में भगवान को और महन्त जी को नमस्कार करके उस पर्वत से नीचे उतरने लगे।

भाई, तुम सोचो तो कि मनुष्य हो या नहीं?

सत्य बोलो

एक डाकू था। डाके डालता, लोगों को मारता और उनके रूपये, बर्तन, कपड़े लेकर चम्पत हो जाता। पता नहीं, कितने लोगों को उसने मारा। पता नहीं, कितने पाप किये।

एक स्थान पर कथा हो रही थी। कोई साधु कथाकर रहे थे। बड़े-बड़े लोग आये थे। डाकू भी गया उसने सोचा- कथा समाप्त होने पर रात्रि हो जायेगी। कथा में से जो बड़े आदमी घर लौटेंगे, उनमें से किसी को मौका देखकर लूट लूँगा।

कोई कैसा भी हो, वह जैसे समाज में जाता है, उस समाज का प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है। भगवान की कथा और सत्संग में थोड़ी देर बैठने या वहां कुछ देर को किसी दूसरे बहाने से जाने में भी लाभ ही होता है। उस कथा सत्संग का मन पर कुछ-न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है।

कथा सुनकर उसको लगा कि साधु तो बड़े अच्छे हैं। उसे कथा सुनकर मृत्यु का डर लगा था और मरने पर पापों का दण्ड मिलेगा, यह सुनकर वह घबरा गया था। वह साधु के पास गया। महराज, मैं डाकू हूँ। डाका डालना तो मुझसे छूट ही नहीं सकता। क्या मेरे भी उद्वार का कोई उपया है? उसने साधु से पूछा।

साधु ने सोचकर कहा- तुम झूठ बोलना छोड़ दो। डाकू ने स्वीकार कर लिया और लौट पड़ा। कथा से लौटने वाले घर चले गये थे। डाकू ने राजा के घर डाका डालने का निश्चय किया। वह राजमहल की ओर चला।

पहरेदार ने पूछा कौन है?

झूठ तो छोड़ ही चुका था, डाकू ने कहा-डाकू। पहरेदार ने समझा कोई राजमहल का आदमी है। पूछने से अप्रसन्न हो रहा है। उसने रास्ता छोड़ दिया और कहा-भाई मैं तो पूछ रहा था। नाराज क्यों होते हो, जाओ।

वह भीतर चला गया और खूब बड़ा सन्दूक सिर पर लेकर निकला।

पहरेदार ने पूछा- क्या ले जा रहे हो?

उसने कहा- जवाहरात का संदूक।

पहरेदार ने पूछा-किससे पूछकर ले जाते हो।

डाकू को झूठ तो बोलना नहीं था। उसने सत्य बोलने का प्रभाव भी देख लिया था। वह जानता था कि पहरेदार ने उसे राजमहल में भीतर जाने दिया, यह भी सत्य का ही प्रभाव था नहीं तो, पहरेदार उसे भीतर भला कभी जाने देता? डाकू के मन में उस दिन से साधु के लिए बड़ी श्रद्धा हो गई थी। उसका डर एकदम चला गया था। वह सोच रहा था कि यदि इतना धन लेकर मैं आज निकल गया और पकड़ा न गया तो फिर आगे कभी डाका नहीं डालूंगा उसे अब अपना डाका डालने का काम अच्छा नहीं लगता था। पहरेदार से वह जरा भी झिझका नहीं उसे तो सत्य का भरोसा हो गया था। उसने कहा डाका डालकर ले जा रहा हूँ।

पहरेदार ने समझा कोई साधारण वस्तु है और यह बहुत चिढ़ने वाला जान पड़ता है। उसने डाकू को जाने दिया। प्रातः राजमहल में तहलका मचा। जवाहरात की पेटी नहीं थी। पहरेदार से पता लगने पर राजा ने डाकू को ढूंढकर बुलवाया। डाकू के सत्य बोलने से राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपने महल का प्रधान रक्षक बना दिया। अब डाकू को रूपयों के लिए डकैती करने की आवश्यकता ही नहीं रही। उसने सबसे बड़ा पाप असत्य छोड़ा तो दूसरे पाप अपने आप छूट गये।

नहिं असत्य सम पातक पुंजा।


सर्वस्व दान

एक पुराना मन्दिर था। दरारें पड़ी थी। खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली। मन्दिर का बहुत सा भाग लड़खड़ाकर गिर पड़ा उस दिन एक साधु वर्षा में उस मन्दिर मेें आकर ठहरे थे। भाग्य से वे जहां बैठे थे, उधर का कोना बच गया। साधु को चोट नहीं लगी।

साधु ने सवेरे पास से बाजार में चन्दा करना प्रारम्भ किया। उन्होंने सोचा मेरे रहते भगवान का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर तब मुझे कहीं जाना चाहिए।

बाजार वालों में श्रद्वा थी। साधु विद्वान थे। उन्होंने घर-घर जाकर चन्दा एकत्र किया। मन्दिर बन गया। भगवानर की मूर्ति की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई। भंडारा हुआ। सबने आनन्द से भगवान का प्रसाद लिया।

भंडारे के दिन शाम को सभा हुई साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। उनके हाथ में एक कागज था। उसमें लम्बी सूची थी। उन्होंने कहा सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माता ने दिया है। वे स्वयं आकर दे गई थी।

लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़िया ने सौ दो सौ रूपये दिये होंगे। कई लोगों ने सौ रूपये दिये थे। लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। जब बाबा ने कहा- उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा सा आटा दिया है। लोगों ने समझा कि साधु हंसी कर रहे हैं। साधु ने आगे कहा वे लोगों के घर के आटा पीसकर अपना काम चलाती हैं। ये पैसे कई महीने में एकत्र कर पायी थी। यही उनकी सारी पूंजी थी। मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूँ।

लोगों ने मस्तक झुका लिये। सचमुच बुढ़िया का मन से दिया हुआ सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था।


शरणागत-रक्षक महाराज शिबि

उशीनर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिरकर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा हुआ जान  पड़ता था। राजा ने उसके उपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा।

कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। बाज ने मनुष्य की बोली में कहा- आप न्याय को जानने वाले राजा हैं। आपको किसी का भोजन नहीं छीनना चाहिए। यह कबूतर मेरा भोजन है। आप इसे दे दीजिए।

महाराज शिबि ने कहा- तुम मनुष्य की भाषा बोलते हो। साधारण पक्षी तुम नहीं हो। साधारण पक्षी तुम नहीं हो सकते। लेकिन तुम चाहे जो कोई हो यह कबूतर मेरी शरण में आया है। मैं शरणागत का त्याग नहीं करूँगा।

बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूँ। आप मेरा भोजन छीनकर मेरे प्राण क्यों लेते हैं?

राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाय, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए?

बाज कहने लगा- महराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। सब प्राणी आपकी प्रजा हैं, सब आपकी शरण्एा में हैं। उनमें से जब किसी को मारना ही है तो इस कबूतर को ही मारने में क्या दोष हैं? मैं तो ताजा मांस खाने वाला प्राणी हूँ और अपवित्र मांस मैं खाता नहीं। मुझे कोई लोभ भी नहीं है। इस कबूतर के बराबर तोल कर किसी पवित्र प्राणी का ताजा मांस मुझे दे दीजिए। मेरी भूख उतने से बुझ जायेगी।

राजा ने विचार किया और बोले-मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुमको दूंगा।

बाज बोला- एक कबूतर के लिए आप चक्रवर्ती सम्राट होकर अपना शरीर क्यों काटते हैं? आप फिर से सोच लीजिए।

राजा के कहा- बाज! तुम्हें तो अपना पेट भरने से काम है। तुम मांस लो और अपनी भूख मिटाओं। मैंने सोच-समझ लिया। मेरा शरीर कुछ अजर-अमर नहीं है। शरण में आये एक प्राणी की रक्षा में शरीर लग जाए। इससे अच्छा इसका दूसरा कोई उपयोग नहीं हो सकता।

महाराज की आज्ञा से वहां कांटा मंगवाया गया। एक पलडे़ में कबूतर बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज ने अपने हाथ से काटकर अपनी बायीं भुजा रख दीं। लेकिन कबूतर का पलड़ा भूमि से उठा नहीं। महाराज शिबि ने अपना एक पैर काटकर रखा और जब फिर भी कबूतर भारी रहा तो दूसरा पैर भी काटकर चढ़ा दिया। इतने पर भी कबूतर का पलड़ा भूमि पर ही टिका रहा। महराज शिबि का शरीर रक्त से लथपथ हो गया था, लेकिन उन्हें इसका कोई दुःख नहीं। अब की बार वे स्वयं पलड़े पर बैठ गये और बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो।

महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सब ने देखा कि बाज तो साक्षात् देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गया हैं। अग्नि देवता ने कहा-महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा है कि आपकी बराबरी में तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता।

इन्द्र ने महराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम दोनों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश अमर रहेगा।

दोनों देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अन्तध्र्यान हो गये।

कर्ण की उदारता

एक बार भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ बातचीत कर रहे थे। भगवान उस समय कर्ण की उदारता की बार-बार प्रशंसा करते थे, यह बात अर्जुन को अच्छी नहीं लगी। अर्जुन ने कहा- श्यामसुन्दर! हमारे बड़े भाई धर्मराज जी से बढ़कर उदार तो कोई है नहीं, फिर आप उनके सामने कर्ण की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?

भगवान ने कहा यह बात मैं तुम्हें फिर कभी समझा दूंगा। कुछ दिनों पीछे अर्जुन को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के राजभवन के दरवाजे पर ब्राम्हण का वेश बनाकर पहुंचे उन्होंने धर्मराज से कहा- हमको एक मन चन्दन की सूखी लकड़ी चाहिए। आप कृपा करके मंगा दें।

उस दिन जोर की वर्षा हो रही थी। कहीं से भी लकड़ी लाने पर वह अवश्य भीग जाती। महाराज युधिष्ठिर ने नगर में अपने सेवक भेजे, किन्तु संयोग की बात ऐसी कि कहीं भी चन्दन की सूखी लकड़ी सेर आध सेर से अधिक नहीं मिली। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-आज सूखा चन्दन मिल नहीं रहा है। आप लोग कोई और वस्तु चाहे तो तुरंत दी जा सकती है।

भगवान ने कहा- सूखा चन्दन नहीं मिलता तो न सही हमें और कुछ नहीं चाहिए।

वहां से अर्जुन को साथ लिये ब्राम्हण के वेश में भगवान कर्ण के यहां पहंुचे। कर्ण ने बड़ी श्रद्धा से उनका स्वागत किया। भगवान ने कहा-हमें इसी समय एक मन सूखी लकड़ी चाहिए।

कर्ण ने दोनों ब्राम्हणें को आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर धनुष चढ़ाकर उन्होंने बाण उठाया। बाण मार-मारकर, कर्ण ने अपने सुन्दर महल के मूल्यवान किवाड़, चैखटें, पलंग आदि तोड़ डाले और लकड़ियों का ढेर लगा दिया, सब लकड़ियां चन्दन की थीं। यह देखकर भगवान ने कर्ण से कहा तुमने सूखी लकड़ियों के लिए इतनी मूल्यवान वस्तुएं क्यों नष्ट कीं?

कर्ण हाथ जोड़कर बोले इस समय वर्षा हो रही है। बाहर से लकड़ी मंगाने में देर होगी। आप लोगों को रुकना पड़ेगा। लकड़ी भीग भी जायगी। ये सब वस्तुएं तो फिर बन जायेंगी, किन्तु मेरे यहां आये अतिथि को निराश होना पड़ेगा या कष्ट हो तो वह दुःख मेरे हृदय से कभी दूर नहीं होगा।

भगवान ने कर्ण को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया और वहां से अर्जुन के साथ चले आये। लौटकर भगवान ने अर्जुन से कहा- अर्जुन! देखो, धर्मराज युधिष्ठिर के भवन के द्वार, चैखटें भी चन्दन की हैं। चन्दन की दूसरी वस्तुएं भी राजभवन में हैं। लेकिन चन्दन मांगने पर भी उन वस्तुओं को देने की यदि धर्मराज को नहीं आयी और सूखी लकड़ी मांगने पर कर्ण ने अपने घर की मूल्यवान वस्तुएं तोड़कर लकड़ी दे दी। कर्ण  स्वभाव से उदार हैं और धर्मराज युधिष्ठिर विचार करके धर्म पर स्थिर रहते हैं। मैं इसी से कर्ण की प्रशंसा करता हूँ।

इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि परोपकार, उदारता, त्याग तथा अच्छे कर्म करने का स्वभाव बना लेना चाहिए। जो लोग नित्य अच्छे कर्म नहीं करते और सोचते रहते हैं कि कोई बड़ा अवसर आने पर वे महान त्याग या उपकार करेंगे, उनको अवसर आने पर यह बात सूझती ही नहीं कि वह महान त्याग किया कैसे जाये। जो छोटे-छोटे अवसरों पर भी त्याग तथा उपकार करने का स्वभाव बना लेता है, वही महान कार्य करने में भी सफल होता है।

किसी का दोष न देखना


भगवान बुद्ध के एक शिष्य ने एक दिन भगवान के चरणों में प्रणाम किया और वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। भगवान ने उससे पूछा-तुम क्या चाहते हो?

शिष्य-यदि भगवान आज्ञा दें तो मैं देश में घूमना चाहता हूँ।

भगवान- लोगों में अच्छे बुरे सब प्रकार के मनुष्य होते हैं। बुरे लोग तुम्हारी निन्दा करेंगे और तुम्हें गालियां देंगे। उस समय तुम्हें कैसा लगेगा?

शिष्य- मैं समझ लूंगा कि वे बहुत भले लोग है, क्योंकि उन्होंने मुझ पर धूल नहीं फेंकी और मुझे थप्पड़ नहीं मारे।

भगवान-उनमें से कुछ लोग धूल भी फेंक सकते हैं और थप्पड़ भी मार सकते हैं।

शिष्य- मैं उन्हें भी इसलिए भला समझूंगा कि वे मुझे डंडे नहीं मारते।

भगवान-डंडे मारने वाले भी दस पांच मनुष्य मिल सकते हैं।

शिष्य- वे मुझे हथियारों से नहीं मारते, इसलिए वे भी मुझे भले जान पड़ेेंगे।

भगवान- देश बहुत बड़ा है। जंगलों में ठग और डाकू रहते हैं। डाकू तुम्हें हथियारों से मार सकते हैं।

शिष्य- वे डाकू भी दयालु जान पड़ेंगे क्योंकि उन्होंने मुझे जीवित तो छोड़ा।

भगवान- यह कैसे जानते हो कि डाकू जीवित ही छोड़ देंगे। वे मार भी डाल सकते हैं।

शिष्य- यह संसार दुःखस्वरूप है। इसमें बहुत दिन जीने से दुःख ही दुःख होता है। आत्महत्या करना तो महापाप है। लेकिन कोई दूसरा मार दे, तो यह उसकी दया ही है।

शिष्य की बात सुनकर भगवान बुद्ध बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा अब तुम पर्यटन करने योग्य हो गए हो। सच्चा साधु वहीं है, जोे कभी किसी दशा में किसी को बुरा नहीं कहता। जो दूसरों की बुराई नहीं देखता, जो सबको भला ही समझता है, वही परिवाजक होने योग्य है।

दूसरों को बुरा समझना और दूसरों के दोषों की छान बीन करना एक बहुत बड़ा दोष हैं। इस दोष से सभी को बचे रहना चाहिए।






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