Sachcha Uttaraadhikaaree hindi moral stories-सच्चा उत्तराधिकारी-हिंदी नैतिक कहानियां |
सच्चा उत्तराधिकारी
रघुवीर नामक एक राजा था। उसके दो पुत्र थे। अजय एवं विजय दोनों पुत्र जुड़वा पैदा हुए थे, इसलिए राजा समझ नहीं पा रहा था कि किसे अपना उत्तराधिकारी चुने। राजा ने मंत्री से सलाह की। मंत्री ने कहा ‘महाराज दोनों कुमार एक दूसरे से बढ़कर हैं। फिर भी हमें किसी एक को तो राजा बनाना ही हैं। रघुवीर ने कहा।
जादुई मोती
मंत्री कुछ देर सोचता रहा फिर गंभीर होकर बोला ‘‘राजन् राजकुमारों के गुणों के गहन अध्ययन के लिए मुझे कुछ समय दीजिए। इस दौरान मैं इनको हर दृष्टि से जाँच परख कर अपनी राय आपको दूँगा।
‘‘ठीक है’’ राजा ने स्वीकृति प्रदान कर दी। एक दिन मंत्री ने दोनों राजकुमारों को अपने पास बुलाया कहा- कुमारो। महाराज की इच्छा है कि आप में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी चुने आज का दिन शुभ है। मैं चाहता हूं कि राजा बनने से पूर्व आप सर्वोत्तम दान करें।
मंत्री की बात सुनकर अजय सोचने लगा। सर्वोत्तम दान क्या हो सकता हैं? तभी उसे कुछ ध्यान आया। वह अपने घोड़े पर बैठ नगर में निकल गया। उसने ढेरों अशर्फियाँ थैले में भरकर अपने साथ ले ली थी। नगर में घूम-घूमकर वह देखता रहा जो भी जरूरत मंद नजर आया, उसने उसी को एक अशर्फी दान में दे दी। अजय सिंह पूरा दिन अशर्फियाँ बांटता रहा।
दुष्टरानी और छोटा भाई
विजय सिंह भी सर्वोत्तम दान के लिए वेश बदलकर, महल से निकल पैदल ही नगर में चला गया। उसके पास अशर्फियाँ भी नहीं थी। वह अभी कुछ कदम ही चला था कि एक बूढ़ा सिर पर लकड़ियों का गटठर उठाए आता नजर आया। वह कमजोर तो था ही बोझ के कारण धीरे-धीरे चल रहा था। उसे देख विजय सिंह को दया आ गई। कहने लगा ‘‘बाबा! लाओ तुम्हारे गट्ठर को मैं घर पहुँचा दूँ।’’
बूढ़ा बोला-बेटा! मैं तो जंगल से लकड़ियों को काटकर ला रहा हूँ। इन्हें बाजार में बेचकर जो पैसे मिलेंगे, उसी से खाने-पीने का समान खरीदूँगा।
‘मैं’ इसे बाजार तक ले चलता हूँ, कहते हुए विजय सिंह ने बूढ़े से लकड़ियों का गट्ठर लेकर अपने सिर पर रख लिया और बाजार तक पहंुचा दिया। बूढ़े ने विजय सिंह को धन्यवाद दिया।
विजय सिंह आगे चला। उसने देखा, सड़क किनारे बगीचे में कुछ बच्चे खेल रहे है। वह भी उनके पास खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद सामने हवेली से एक गरीब बालक निकला। वह वहाँ आकर चुपचाप खड़ा हो गया। विजय सिंह ने उस लड़के से पूछा क्या तुम्हारा मन खेलने को नहीं करता?
लड़का बोला मन तो बहुत करता है पर मेरा मालिक आने वाला है। मुझे घर की सफाई करनी है। झूठे बर्तन साफ करने हैं। इसलिए मैं खेल नहीं सकता।
‘‘लेकिन तुम्हारी उम्र तो अभी खेलने-खाने की है।’’
हम बहुत गरीब हैं। मेरी माँ मर चुकी है। पिता जी ने मुझे यहाँ नौकरी लगवा दिया है।
वह बातें कर ही रहा था कि रेशमी वस्त्र पहिने एक व्यक्ति वहाँ आया। बच्चे को डाटते हुए बोला- अरे दुष्ट तू यहाँ खड़ा है। अभी तक घर की सफाई भी नहीं हुई।
लड़का डरकर हवेली की ओर भाग गया। विजय सिंह को यह सब बुरा लगा। वह कुछ क्षण सोचता रहा। फिर उस व्यक्ति के पास जाकर बोला-‘‘श्रीमान जी! यदि आपको आपत्ति न हो तो उस बच्चे के स्थान पर आज मैं आपके घर का काम कर दूँगा। उसे खेलने दीजिए।
पाखण्डी सियार
धनवान ने सोचा यह और भी अच्छा रहेगा। बच्चा बड़े बर्तन नहीं उठा सकता। पर यह तो पूरे घर को साफ कर देगा। खुश होकर बोला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। तुम्हें बच्चे पर दया आती है तो तुम काम कर दो। हम उसे छोड़ देंगे।
विजय सिंह बच्चे के पास गया और बोला जाओ, तुम खेलो। आज मैं तुम्हारी जगह काम करूँगा।
बच्चे ने सुना तो खुशी से उछल पड़ा। चहकता हुआ बाहर बगीचे में भाग गया। विजय सिंह दिर भर साहूकार के घर काम करता रहा।
शाम को अजय और विजय दोनों महल में पहुंचे। दोनों ने अपनी-अपनी दिनचर्या मंत्री को बताई।
मंत्री ने चुपचाप उनकी बातें सुनी। फिर बिना कुछ बोले वह अपने कमरे में चला गया।
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अगले दिन प्रातः उसने दोनों राजकुमारों को पुनः अपने पास बुलाया कहा-‘‘कल आप लोगों ने दान किया मैं चाहता हूँ आज आप दोनों कुछ कमा कर लाएँ।
अजय सिंह ने अपने साथ दस सिपाहियों को लिया वे घोड़ों पर सवार होकर बाहर के धनाढय लोगों की बस्ती में पहुँचे। वहाँ जाकर अजय सिंह ने व्यापारियों से कहा आज मुझे बहुत सारे धन की आवश्यकता है। आप लोग मिलकर एक लाख स्वर्ण मुद्राएं मुझे दो। लेकिन कुमार! इतनी मुद्राएं हम एक साथ कहां से दे सकते है? एक साहूकार ने विनती की।
‘‘मैं कुछ सुनना नहीं चाहता यदि धन नहीं दोगे तो मैं तुम्हें दण्ड दूँगा। व्यापारी डर गए जिसके पास जो धन था तुरन्त लाकर विजय सिंह के चरणों में रख दिया। अजय सिंह न अपने सेवकों को आदेश दिया कि वह सारा धन मंत्री जी के पास पहुंचा दो। उनसे कहना कि अजय सिंह ने दिन भर में इतना धन कमा लिया है।
दूसरी तरफ विजय सिंह ने अपने साथ वैद्य हकीमों का एक दल लिया। नगर के हर गली मुहल्ले में जाकर उसने बीमार व्यक्तियों का हाल चाल पूछा। उन्हेें मुफ्त दवा दी।
जब लोगों को पता चला कि महाराज रघुवीर का पुत्र घर-घर जाकर बीमारों की सेवा कर रहा है तो वे उसकी जय-जयकार करने लगे।
सभी में गुरू ही है समाया
दिन भर सेवा करने के बाद विजय सिंह शाम को महल मेें आ गया। अजय सिंह तो पहले ही पहुंच चुका था। मंत्री ने दोनों की आप बीती सुनी। पूरे दिन की घटना सुनकर भी वह चुप रहा।
कुछ दिन यूं ही बीत गए। एक दिन मंत्री ने दोनों कुमारांे को फिर बुलाया कहा-‘‘आपने दान भी दिया, कमाया भी। अब कुछ जीत कर लाओ।
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अजय सिंह ने सैनिकों की एक टुकड़ी ली। पास के एक टापू पर हमला बोल दिया। टापू पर मित्र देश का कब्जा था। वहाँ के सैनिकों को तो हमले की आशंका भी नहीं थी। अजय सिंह के अचानक आक्रमण से वे भौचक्के रह गए। शाम तक अजय सिंह के सैनिकों ने टापू पर अधिकार कर लिया। अजय सिंह ने स्वयं महल में आकर मंत्री को विजय की सूचना दी।
उधर विजय सिंह बिना कुछ खाए पिए जंगल में चला गया उस दिन उपवास रखा। ध्यान मग्न हो पेड़ के नीचे बैठा रहा।
शाम को वह महल में आया। मंत्री ने पूछा ‘क्या जीता?
विजय सिंह बोला-‘‘आज पहली लड़ाई में मै जीत गया। अगले दिन मंत्री दोनों कुमारों को लेकर राजदरबार में उपस्थित हुआ। सभी की निगाहें मंत्री पर टिकी थी। वे जानना चाहते थे कि उनका अगला राजा कौन होगा?
मंत्री ने कहा-महाराज मैंने अजय एवं विजय को सर्वोत्तम दान के लिए कहा था। अजय सिंह ने पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं गरीबों में बांटी। लेकिन विजय सिंह ने क्या किया, वह स्वयं बताएगा।
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विजय सिंह ने बोला- मंत्री जी ने सर्वोत्तम दान की बात कही। जहाँ तक दान का प्रश्न है वह तो अपनी चीज का किया जाता है। स्वर्ण मुद्राएं प्रजा का धन है। भला उस पर मेरा क्या अधिकार? मैंने श्रमदान किया। बूढ़े बाबा का गट्ठर उठाया। साहूकार के घर मजदूरी करके बच्चे को खेलने का अवसर दिया।
मंत्री बोला-राजन्! अगले दिन कुछ कमा कर लाना था। अजय सिंह एक लाख स्वर्ण मुद्राएं लाया। लेकिन इसे कमाना नहीं कह सकते क्यों कि यह धन तो व्यापारियों को डरा कर छीना गया था।
विजय सिंह बोला- मैंने दिन भर प्रजा की सेवा की। लोगोें ने मुझे शुभकामनाएं और आशीर्वाद दिया। मेरे लिए यही सबसे बड़ी कमाई है।
राजा रघुवीर और दरबारी बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनते रहे। मंत्री ने कहा-‘‘तीसरी बार इन्हें कुछ जीत कर लाना था। अजय सिंह ने पड़ोसी राज्य का एक टापू जीत लिया। लेकिन वह पड़ोसी राजा तो हमारा मित्र है। इस टीपू पर आक्रमण से हमारे सम्बन्धों पर असर पडे़गा।
राजा रघुवीर ने विजय सिंह से पूछा- तुमने क्या जीता?
बोलती टोपी
‘‘पिता जी मैं तो स्वयं पर ही विजय पाने की कोशिश करता रहा। मैंने व्रत रखा। प्रयास किया कि आलस्य, लोभ एवं क्रोध के विचार मन में न आएं। मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु यही है।
‘‘क्या तुम्हें इसमें विजय मिली? राजा ने पूछा पिता जी। मैं अपने इस प्रयास में सफल रहा।
मंत्री बोला- महाराज, अब आप स्वयं फैसला कर लीजिए।
गंभीर होकर राजा ने कहा- फैसला हो गया मंत्री जी। राजा वही होना चाहिए जो खजाने के धन को प्रजा का धन समझे। प्रजा की भलाई जिसके लिए सबसे श्रेष्ठ कार्य हो और जिसने अपनी इच्छाओं पर काबू पा लिया हो। इसलिए मैं विजय सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित करता हूँ।
सभी दरबारी नए राजा की जय-जयकार करने लगे।
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