शुक्रवार, 18 जून 2021

Sabhee Mein Guroo Hee Hai Samaaya Hindi kahani| सभी में गुरू ही है समाया हिन्दी कहानी

Sabhee Mein Guroo Hee Hai Samaaya Hindi kahani| सभी में गुरू ही है समाया हिन्दी कहानी
Sabhee Mein Guroo Hee Hai Samaaya Hindi kahani| सभी में गुरू ही है समाया हिन्दी कहानी

 सभी में गुरू ही है समाया

शिष्य संजीवनी में सद्गुरु प्रेम का रस है। जो भी इसका सेवन कर रहे हैं, उन्हें इस सत्य की रसानुभूति हो रही है। गुरुभक्ति से भीगे नयन, गुरुप्रेम से रोमांचित तन-मन, अंतःकरण यही तो शिष्य का परिचय है। जो शिष्यत्व की साधना कर रहे हैं, उनकी अंतर्चेतना में दिन-प्रतिदिन अपने गुरुदेव की छवि उजली होती जाती है। बाह्य जगत में भी सभी रूपोें और आकारों में सद्गुरु की चेतना ही बसती है। गुरुप्रेम में डूबने वालों के अस्तित्व से द्वैत का आभास मिट जाता है। दो विरोधी भाव, दो विरोधी अस्तित्व एक ही स्थान पर, एक ही समय प्रगाढ़ रूप से नहीं रह सकते। प्रेम से छलकते हुए हृदय में घृणा कभी नहीं पनप सकती। जहाँ भक्ति है, वहाँ द्वेष ठहर नहीं सकता। समर्पित भावनाओं के प्रकाशपंुज में ईष्र्या के अँधियारों के लिए कोई जगह नहीं है।

Hindi Stories

संपेक्ष में द्वैत की दुर्बलता का शिष्य की चेतना में कोई स्थान नहीं है। अपने पराये का भेद, मैं और तू की लकीरें यहाँ नहीं खींची जा सकती। यदि किसी वजह से अंतर्मन के किसी कोने में इसके निशान पड़े हुए हैं तो उन्हें जल्द-से जल्द मिटा देना चाहिए, क्योंकि इनके धूमिल एवं धुँधले चिन्ह भी गुरुप्रेम में बाधक हैं। द्वैत की भावना किसी भी रूप में क्यों न हो, शिष्यत्व की विरोधी है, क्योंकि द्वैत केवल बाह्य जगत को ही नहीं बाँटता, अंतर्जगत को भी विभाजित करता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जिसकी अंतर्चेतना विभाजित है, बँटी-बिखरी है, वही बाहरी दुनिया में द्वैत का दुर्भाव देख पाता है। आखिर अंतर्जगत की प्रतिच्छाया ही तो बाह्य जगत है।

इसीलिए शिष्यत्व की महासाधना के सिद्धजनों ने इस मार्ग पर चलने वाले पथिकों को चेतावनी भरे स्वरों में शिष्य संजीवनी के तीसरे सूत्र का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है-‘‘द्वैत भाव को समग्र रूप से दूर करो। यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो। अरे! वे तो तुम्हारे ही रूप हैं। भले ही तुम्हारे से भिन्न अथवा गुरुदेव से कुछ कम तुम्हारे रूप हों, फिर भी हैं वे तुम्हारे ही रूप। याद रहे कि सारे संसारे का पाप व उसकी लज्जा, तुम्हारी अपनी लज्जा व तुम्हारा अपना पाप है। स्मरण रहे कि तुम संसार के एक अंग हो, सर्वथा अभिन्न अंग और तुम्हारे कर्मफल उस महान कर्मफल से अकाट्य रूप से संबद्ध हैं। ज्ञानप्राप्ति के पहले तुम्हें सभी स्थानों में से होकर निकलना है, अपवित्र एवं पवित्र स्थानों से एक ही समान।’’

 मनुष्य अपना स्वामी स्वयं

इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जो अपने गुरुदेव के प्रेम में डूबे हैं। जो इस अनुभव के रस को चख रहे हैं, वे जानते हैं कि जब प्रेम ही बचता है। जब भक्त अपनी पूरी लीनता मेें होता है तो भगवान और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर फासला हो तो भक्ति अधूरी है सच कहें तो भक्ति है ही नहीं। वहाँ भक्त और भगवान परस्पर घुल मिल जाते हैं। दोनों के बीच एक ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों घोर लीन हो जाते हैं और एक ही अस्तित्व रह जाता है। प्रेम और भक्ति में अद्वैत ही छलकता एवं झलकता है।

सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है। इसमें से कोई उस अस्तित्व से अलग-अलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं हैं, हमारी सीमाएँ कामचलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहें तो कोई दूसरा है ही नहीं। तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही, लेकिन घट अपने ही साथ रहा है। भगवान महावीर, भगवान बुद्ध अथवा महर्षि पतंजलि ने जो अहिंसा की महिमा गाई, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका कुल मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि हम किसी को चोट पहुँचा रहे हैं या दुःख पहुँचा रहे हैं अथवा मार रहे हैं तो दरअसल हम गुरुघात या आत्मघात ही कर रहे हैं, क्योंकि गुरुवर की चेतना में हमारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।

ध्यान रहे, जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय मेें उठता है तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। ऐसा नहीं कि आज ही अनंत काल तक यह झंकार सुनी जाएगी। हमारा यह रूप भले ही खो जाए, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाए, हमारा यह नाम भले ही मिट जाए। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे, लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनाई थी, वह सबकी सब इस अस्तित्व में गूंजती रहेगी, क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाए, लेकिन कहीं और प्रकट हो जाएगा। हम यहाँ से भले ही खो जाएँ, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से अंकुरित हो जाएगा।

Top 25 Hindi Story For Reading-हिंदी में कहानियाँ पढ़ने के लिए

हम जो भी कर रहे हैं, वह खोना नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी खोना नहीं है, क्योंकि हम एक विराट के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गई है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही हैं, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर-नीचे जुड़ी हुई हैं, और जिस जल से उठ रही है यह लहर उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है। इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। इस जगत में सभी कुछ लहरवत है। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।

परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किए जाएँ। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचाते हैं, दुःख पहुँचाते हैं तो हम किसी और को नहीं, सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है। महान शिष्यों के जीवन की जीवंत अनुभूति है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल के पैर में चोट पहुँचाई। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर के पाँव पर उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।

 परोपकार का पौधा

महान शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको। क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ, तो फिर हमारे अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो या पुण्यात्मा, हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सभी में हमारे गुरुदेव ही समाए हैं। अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसीलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वैष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस जगत में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।


एक संत के पीछे एक आदमी गालियाँ बकता चला जा रहा था। संत बड़े शांत भाव से अपनी राह चले जा रहे थे। वह सरा इलाका जंगली था। यह इलाका समाप्त होकर जहाँ से बस्ती दिखने लगी, वहीं संत ठहर गए और उस व्यक्ति से बोले, ‘‘भाई, मैं यहाँ रुक गया हूँ। अब जितना जी चाहे, मुझे गाली दे दो।’’

‘‘ऐसा, क्यों?’’ उस दुष्ट आदमी से पूछा।

‘‘ऐसा इसलिए भाई कि इस बस्ती के लोग थोड़ा मुझे जानते हैं। उनके सामने तुम मुझे गाली दोगे तो वे तुमको जरूर सजा देंगे।’’

‘‘तो इससे तुझे क्या?’’ उस दुष्ट ने फिर पूछा।

‘‘तुम्हें तंग किया जाएगा तो मुझे बहुत तकलीफ होगी। आखिर तुम इतनी दूर तक मेरे पीछे-पीछे आए हो तो मुझे भी तुमसे स्नेह हो गया है।’’ संत ने प्यार से समझाते हुए कहा।

वह दुष्ट व्यक्ति संत के चरणों पर गिर पड़ा। जानते हो, वह संत कौन था? ये थे शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास।


इन्हे भी पढ़े सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ-

  1. दुर्गा चालीसा हिंदी में-Durga Chalisa in Hindi
  2. हनुमान चालीसा हिंदी में- Hanuman Chalisa in Hindi
  3. शहद भरे पपीते
  4.  दो सगे भाई
  5. अंधा और कुबड़ा
  6. बंदर की चतुराई
  7. बादशाह और फकीर
  8. लोटे मेें पहाड़
  9. झील महल
  10. बन गया देवताछूना है आकाश
  11. बैलों की बोली
  12. नहीं चाहिए धन
  13. गरीबा का सपना
  14. चाचा के आम
  15. बुद्धिमान व्यापारी-Intelligent businessman
  16. तोते का संदेश-Parrot message
  17. लहर ले जाए
  18. आकाश से गिरा
  19. कोतवाल
  20. सोने की चाबी।
  21. मिला वरदान।
  22. आग ने कहा
  23. चलो काशी
  24. अपनी खोज

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Top 10+ Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए

Hindi Story to read online|Story Read in Hindi-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए Hindi Story to read online-कहानियाँ आनलाइन पढ़ने के लिए  दो सगे भा...