Hindi Kahaniyan| Hindi Story, Hindi Story Online Reading|Hindi Short Story-हिन्दी कहानियाँ पढ़ने के लिए यहाँ पर ऐसा 10 विशाल कहानियों का संग्रह किया गया है जो ज्ञानवर्धक, प्रेरक और बहुत ही मूल्यवान है। जिसको पढ़ करके कुछ न कुछ सीख अवश्य मिलती है। आइए अपने मित्रों तथा बच्चों को इस ज्ञान के भण्डार को अवश्य प्रदान करें।
लोटे मेें पहाड़
दक्षिण दिशा में एक छोटा सा गाँव था। वहाँ रहने वाले लोग सीधे-सादे और मेहनती थे। इसीलिए वहाँ सदा हरियाली और खुशहाली छाई रहती थी।
एक दिन न जाने कहाँ से एक राक्षस, पास के पर्वत पर आकर रहने लगा। राक्षस भी ऐसा भयानक कि अट्टहास करता, तो मुँह से आग निकलती। उस आग से गाँव के पेड़-पौधे झुलस जाते। पशु-पक्षी छटपटाने लगते। रोज-रोज यह सब होता। अब गाँव में चैन से रहना ही दूभर हो गया था।
आखिरकार गाँव वालोें ने एक सभा बुलाई। सभी ने उसमें भाग लिया। सरपंच ने समस्या सबके सामने रखी, लेकिन कोई इसका हल नहीं बता पाया।
तभी एक बूढ़ा, लाठी टेकता वहाँ आया। बोला, ‘‘इस विपत्ति से छूटने का समाधान तो मैं बता सकता हूँ, लेकिन इसके लिए गहरे सागर, ऊँचे पर्वत और भयानक जंगल पार करके हिमदेव के पास जाना पड़ेगा, रास्ता बहुत कठिन व खतरनाक है। गाँव में है कोई ऐसा साहसी युवक, जो यह काम करने की हिम्मत कर सके?’’
बूढ़े की बात सुन, सभा में सन्नाटा छा गया। सब इधर-उधर देखने लगे।
तभी एक छोटा सा बालक खड़ा हुआ। उसका नाम चेतन था। बोला- ‘‘बाबा, मुझे बताओ, क्या करना है?’’
चेतन को देख, बूढ़े ने हँसकर कहा- ‘‘बच्चे, तुम अभी बहुत छोटे हो। यह काम तुमसे नहीं होगा।’’
चेतन बोला- ‘‘आप मुझे बतायें तो सही। मैं किसी से नहीं डरता। अपने गाँव की रक्षा के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।’’
यह सुन, बूढ़े ने चेतन को अपने पास बुलाया। कहा- ‘‘देखो उत्तर दिशा में हिमदेव का महल है। वहाँ जाकर उन्हें अपनी समस्या बतानी होगी। वह चाहेंगे, तो तुम्हारी दुःख दूर हो जायेंगे।’’
-‘‘परन्तु मैं वहाँ पहुँचूँगा कैसे?’’
‘‘मैं तुम्हें जादुई जूते दूँगा। उन्हें पहनकर तुम बहुत तेजी से चल सकोगे। रास्ते में जो विपदाएँ आएँगी, उनसे तुम्हें स्वयं ही निपटना पड़ेगा, यहीं तुम्हारे साहस की परीक्षा होगी।’’- इतना कहकर बूढ़े ने चेतन को एक जोड़ी जूते दे दिए।
‘‘कल सुबह ही तुम यहाँ से चले जाओ। जल्दी से जल्दी वापस आना। कहीं ऐसा न हो, तुम्हारे आने से पहले ही राक्षस पूरे गाँव को उजाड़ दे।’’
अगले दिन सुबह-सुबह चेतन घर से निकल पड़ा। गाँव से बाहर पहुँचते ही उसने जाुदई जूते पहन लिए। जूते पहनकर वह दस दिन की दूरी एक दिन में तय कर सकता था। वह तेजी से उत्तर दिशा में चल पड़ा।
सबसे पहले उसके रास्ते में ऊँचे- ऊँचे पर्वत आए, लेकिन जूतों की सहायता से वह लम्बी-लम्बी छलांग मारकर, उन पर चढ़ गया। पहाड़ी रास्ता पार करने में उसे कई दिन लग गए। वह बुरी तरह थक गया। फिर भी उसने आराम नहीं किया। चाहता था, जल्दी से जल्दी अपनी मंजिल पर पहुँच जाए।
एक ऊँचे पर्वत की घाटी में उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी। चेतन ने आसपास देखा, तो पाया कि एक बड़ा सा काला नाग एक पत्थर के नीचे दबा पड़ा था। चेतन को दया आ गई। उसने पत्थर हटाकर नाग को मुक्त कर दिया।
नाग ने चेतन को बहुत धन्यवाद दिया। फिर वहाँ आने का कारण पूछा। चेतन ने उसे पूरी बात बता दी। उसकी बात सुन, नाग ने कहा- ‘‘तुमने मेरी जान बचाई है। मैं बदले मेें तुम्हें एक तीर कमान देता हूँ। इसका वार कभी खाली नहीं आता है। छोड़ने के बाद तीर वापस भी आ जाता है।’’
नाग से तीर कमान ले, चेतन आगे बढ़ा। अब जंगल का रास्ता शुरू हो गया। साथ ही भयानक जानवर चेतन पर झपटने लगे। चेतन घबराया नहीं। तीर कमान की सहायता से वह सब जानवरों को मारता-भगाता आगे बढ़ने लगा।
अचानक एक दिन चेतन का सामना एक बहुत बड़े भयानक जानवर से हो गया। उसके तीर सिर थे। पूरे शरीर पर छोटे-बड़े जहरीले कीड़े चिपके हुए थे। ऐसा जानवर चेतन ने पहले कभी नहीं देखा था।
उसे देख, पहले तो चेतन घबरा गया, लेकिन अपने गाँव की मुसीबत की याद आते ही चेतन में हिम्मत भर गई। उसने कमान पर अपना तीर रखकर ताना। वह तीर छोड़ने वाला था, तभी जानवर बोला- ‘‘ठहरो, मुझे मत मारो।’’
चेतन रूक गया। उस जानवर ने कहा- ‘‘दुनियाँ में केवल एक ही शस्त्र है, जिससे मैं मर सकता हूँ। ओर वह है तीर-कमान। अगर तुम मुझ पर दया कर, मुझे न मारो, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।’’
‘‘ क्या मदद कर सकते हो तुम?’’ - चेतन ने पूछा।
‘‘मुझे पता है, तुम हिमदेव के पास जा रहे हो। आगे सात सागर आयेंगे। उनके साधारण मनुष्य पार नहीं कर सकता। मेरे जादुई लोटे की सहायता से तुम आसानी से उन्हें लांघ सकोगे।’’
यह कहकर उसने चेतन को रत्नों से जड़ा एक सुन्दर लोटा दिया। उसे प्रयोग करने का तरीका भी बता दिया।
लोटा लेकर चेतन आगे बढ़ा। कुछ देर बाद वह समुद्र के आगे खड़ा था। तूफानी हवाएँ चल रही थीं। समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं।
चेतन के पास तो इसका समाधान था। उसने झुककर समुद्र की कूछ बूँदें लोटे में ले ली। ऐसा करते ही समुद्र बिलकुल शांत हो गया। पानी के बीच में सूखा रास्ता निकल आया। इस प्रकार चेतन ने आराम से सातों समुद्र पार कर लिए।
चलते -चलते चेतन हिमदेव के महल पर पहुँच गया। महल बर्फ का बना था और शीशे की तरह चमक रहा था। चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। चेतन ठंड से काँपता हुआ महल की ओर बढ़ा। महल का द्वार बन्द था। चेतन ने द्वार खटखटाया, किन्तु किसी ने द्वार न खोला।
तीन दिन तक चेतन महल के बाहर ठण्ड में खड़ा, दरवाजा खटखटाता रहा, किन्तु सब बेकार। वह निराश होकर वापस जाने की सोच रहा था, तभी एक चिड़िया उड़ती हुई आई। बोली- ‘चेतन, द्वार पर अपना तीर चलाओ।’
चेतन ने द्वार पर तीन चलाया, तो क्षण भर में द्वार खुल गया। चेतन अंदर गया। एक बड़े कक्ष में सफेद कपड़े पहने हिमदेव बैठे थे। उनके हाथ में एक बड़ा सा पंखा था। एक तरफ बहुत सारी रूई पड़ी थी। वह अपने पंखे को हिलाते, तो रूई बर्फ बनकर ठंड हवा के झोकों के साथ बाहर निकलती।
चेतन को देखकर वह बोले-‘‘अरे, बालक! कहो, क्या काम है?’’
चेतन ने उन्हें पूरी कहानी सुनाकर कहा- ‘‘ आपसे प्रार्थना है, किसी भी तरह इस मुसीबत से छुटकारा दिलाएँ।’’
‘‘तुम जैसे साहसी बच्चे की मदद करके मुझे खुशी होगी। लाओ, अपना लोटा इधर लाओ।’’ - हिमदेव ने कहा।
हिमदेव ने लोटे पर अपना पंखा झला और कहा - ‘‘जाओ, इस लोेटे का पानी उस राक्षस पर फेंक देना।’’
लोटा लेकर चेतन महल से बाहर निकला। बाहर बड़ी चिड़िया बैठी थी। बोली- ‘‘क्या तुम्हें पता, घर से निकले तुम्हें छह महीने हो गए हैं? अगर तुम जल्दी वापस न पहुँचे, तो पूरा गाँव खत्म हो चुकेगा।
‘‘छह महीने!’’ चेतन ने अचरज से कहा-‘‘ मुझे तो लग रहा है, जैसे मैं कुछ ही दिन पहले घर से निकला था, लेकिन अब वापस जाने में भी उतना ही समय लग जाएगा।’’
‘‘मैं तुम्हें अपने दो पंख देती हूँ। इन्हें तुम अपने जूतों पर लगा लो। फिर तुम पहले से भी ज्यादा तेजी से चल सकोगे।’’
चेतन ने चिड़िया के लिए पंख अपने जूतों पर लगा दिए और तेजी से गांव की ओर चल पड़ा।
कुछ ही दिन में वह अपने गांव पहुँच गया। इस बीच गाँव के सारे पेड़ तथा खेत सूख गए थे। चेतन को देख, गाँव वाले बहुत खुश हुए।
चेतन गाँव वालों के साथ लोटा लेकर राक्षस की ओर गया। राक्षस ने चेतन को आते देखा, तो जोर से दहाड़ा। चेतन ने लोटे का पानी उसकी ओर फेंक दिया। ऐसा करते ही उस छोटे से लोटे में से बर्फ निकली। राक्षस के मुँह से निकलती लपटें तुरन्त ठण्डी पड़ गई। बर्फ निकलती रही, निकलती रही और राक्षस पूरा का पूरा बर्फ से ढक गया। कुछ ही देर में राक्षस के स्थान पर केवल बर्फ का एक पहाड़ रह गया था।
लोग खुशी से झूम उठे। उन्होंने चेतन को कंधों पर उठा लिया। कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि राक्षस के स्थान पर ठण्डे पानी की एक सुन्दर झील बन गई। गाँव में एक बार फिर सुख-शांति छा गई।
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झील महल
अरूणागढ़ के राज कुमार विक्रम ने कुछ वर्ष आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त की। एक दिन वह महल में लौटा। वहाँ उसे नई रानी मिली। उसकी माँ का बचपन में देहान्त हो गया था। विक्रम के आश्रम जाने के चार पाँच साल बाद मंत्री ने अपने मामा की लड़की से राजा का विवाह करा दिया। विक्रम को यह पता चला, तो उसने राजा से इस बारे में नाराजगी प्रकट की। राजा और विक्रम में कहा-सुनी भी हुई। इस पर विक्रम की सौतेली माँ जल भुन गई। वह विक्रम को मृत्युदण्ड दिलाना चाहती थी। मगर राजा ने उसे एक वर्ष का अज्ञातवास दे दिया। उसने कहा- ‘‘बेटा, यदि तुम अज्ञातवास की अवधि में पहचान लिए गए, तो तुम्हें जीवन भर के लिए देश से निकाल दिया जायेगा।’’
राजा कुमार विक्रम वन में पहुँचा। तभी किसी कन्या ने उसे आवाज दी-‘‘युवक, वन में मत जाओ। वहाँ तुम्हारे प्राणों को खतरा है।’’ राज कुमार ने चैंककर इधर-उधर देखा। पर उसे कोई भी नजर नहीं आया। सहसा राज कुमार के सामने एक युवती आकर खड़ी हो गई। उसने कहा-‘‘मैं इस वन के स्वामी राक्षसराज की कन्या मोहिनी हूँ। पर तुम काल के मुँह में क्यों जा रहे हो?’’
राजकुमार मोहिनी के रूप और व्यवहार से प्रभावित हो गया। उसने सारा किस्सा मोहिन को सुना दिया। मोहिनी बोली-‘‘यहाँ से थोड़ी दूरी पर एक झील महल है। किसी समय वह महल शत्रुसेन का था पर मेरे पिता ने उसके परिवार का नाशकर दिया। वह सब जगह आते-जाते हैं, लेकिन वह झील महल में कभी नहीं जाते। वहाँ शत्रुसेन के बाघ-चीते और शेर रहते हैं।’’ यह सुन विक्रम ने झील महल जाने का मन बना लिया।
विक्रम को विदा करते समय मोहिनी की आँखों में आँसू आ गए। वह बोली-‘‘ विक्रम, मैं अपने पिता के अत्याचारों से बहुत दुःखी हूँ। तुम उनको समाप्त कर दो, तो मुझे इस संकट से छुटकारा मिल सकता है। मुझे तुम पर पक्का भरोसा है कि एक दिन तुम मुझे इस मुसीबत से अवश्य छुटकारा दिलाओगे।’’
‘‘मोहिनी, मैं तुम्हारी हर संभव मदद करूँगा। तुम मुझ पर भरोसा रखो।’’-कहते हुए उसने मोहिनी को दिलासा दी और वहाँ से चला गया।
विक्रम महल के परिसर में पहुँचा, तो हाथी ने उसका स्वागत किया। उसने भी हाथी को प्यार से सहलाया। दूसरे पशु-पक्षी भी खुशी से नाचने लगे। भालू ने विक्रम के सामने शहद भरा कलश लाकर रख दिया। बंदरोें ने फलों का ढेर लगा दिया। उसने जी भरकर फल खाए। थोड़ी ही देर में वह पशु-पक्षियों से घुलमिल गया। क्योंकि आश्रम में रहते हुए ही उसने पशु-पक्षियों की भाषा सीख ली थी। अतः उसे उन्हें अपना बनाने में कुछ ही समय लगा।
एक दिन शेर विक्रम को शत्रुसेन ने कक्ष में ले गया। वहाँ एक बड़ा संदूर रखा था। विक्रम ने संदूर में से शत्रुसेन के कपड़े और अस्त्र-शस्त्र निकाल लिए।
एक बार विक्रम पशु-पक्षियों को युद्ध का प्रशिक्षण दे रहा था तभी मोहिनी वहाँ आ गई। विक्रम की मेहनत देख मोहिनी खुश थी। पर शेर मोहिनी को देख गुर्राया। इस पर विक्रम ने उससे कहा- ‘‘मोहिनी हमारी तरह ही राक्षसराज से छुटकारा पाना चाहती है। इसी के कहने पर ही तो मैं तुम लोगों के साथ रह रहा हूँ।’’ यह सुन पशु-पक्षी मोहिनी से प्यार करने लगे। मोहिनी भी उन्हें प्यार करने लगी।
मोहिनी युद्ध की तैयारी देख खुश थी। उसने कहा-‘‘ विक्रम, अब राक्षसराज अपने महल में ही रहेगा। लेकिन उसे वरदान मिला हुआ है कि कोई पशु या आदमी उसे नहीं मार सकता।’’
विक्रम ने कहा- ‘‘इसीलिए मैंने बाज और गिद्धो की भी सेना बनाई है। अब देखना कि मैं राक्षसराज को कैसे समाप्त करूँगा?’’ यह सुन मोहिनी खुशी-खुशी लौट गई।
एक दिन विक्रम ने पशु-पक्षियांे की सेना के साथ राक्षसराज के महल पर धावा बोल दिया। राक्षसराज ने राजकुमार को देखते ही उस पर अग्निबाण चला दिया मगर बाज ने बाण पर झपट्टा मारा, तो बाण उलटे ही राक्षसराज के पैरों में जा लगा। उसके पैर जल गए। अब उसने गदा उठाई। तभी गिद्धों ने उसकी आँखों पर झपट्टा मारा। उसके हाथ से गदा छूट गई और वह उसकी छाती में जा लगी। वह निढाल हो गया।
यह खबर मिलते ही मोहिनी खुशी से झूम उठी। उसे पिता के अत्याचारों से छुटकारा मिल गया था। उसके कहने से विक्रम ने उससे विवाह कर लिया। वे मजे से वहाँ रहने लगे।
कुछ दिन बाद ही राजकुमार का अज्ञातवास पूरा हो गया। राज कुमार और मोहिनी अरूणगढ़ की तरफ चल पढ़े। उनके साथ उनकी पशु-पक्षियों की सेना भी थी।
वे शाम को महल में पहुँचे। वहाँ विक्रम को पता चला कि सौतेली माँ के भाई का राज्याभिषेक हो रहा है। यह सुन उसे क्रोध आ गया। उसका इशारा पाते ही पशु-पक्षी ऊधम मचाने लगे। सौतेली माँ अपने भाई के साथ भागने को थी, तभी शेर ने उसे उसके भाई को मार डाला। प्रजा ने विक्रम को अपना राजा मान लिया। वे उसका जय-जयकार करने लगे।
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बन गया देवता
असीरिया की दजला घाटी में बसंत का मौसम आ गया। जंगल इन्द्रधनुषी फूलों से सज गए थे। हवा भीनी-भीनी गंध से महकने लगी थी।
फूलों की परी थी इकत्रा। उसकी सखियों ने कहा- ‘‘तुम लोग दजला की घाटी में जा रही हैं। वहाँ बसंत मनायेंगे।’’
इकत्रा परी ने कहा - ‘‘हाँ, हमें वहाँ जरूर जाना चाहिए। इस समय असुरराज गिल्मेशा के अत्याचार बहुत बढ़े हुए हैं। असीरिया की जनता अपने जीवन से निराश हो चुकी है। उनके लिए तो वसंत का मौसम भी पतझड़ जैसा ही है। लेकिन क्या यह समय उत्सव मनाने का है?’’
एक परी ने कहा- ’’हमने सुना है, तुम्हारे पास जादू के पाँच फूल है। अत्याचारी के विरूद्ध तुम्हारे फूल हथियार का काम करते हैं।’’
जादुई फूलों का रहस्य देवदूतांे को पता था। उनमें से एक देवदूत धरती पर आया। उसने लोगों से कहा- ‘‘फूलों की परी है इकत्रा। तुम लोग उसकी शरण में आ जाओ। अगर वह तुम्हारी मदद करें, तो अत्याचारी गल्मेशा का आतंक समाप्त किया जा सकता है।’’
‘भला इकत्रा के फूल हथियारों का सामना कैसे करेंगे?’-लोग आपस में कहने लगे।
देवदूत ने कहा- ‘‘वे साधारण फूलों से अलग हैं। उन फूलों की शक्ति के आगे बड़े से बड़े महाबली अत्याचारी भी हार मान जाते हैं।’’
दुःखी जनता ने इकत्रा से प्रार्थना की-‘‘देवी हमें गिल्मेशा के अत्याचारों से बचाओ। गिल्मेशा पर किसी हथियार का असर नहीं पड़ता है।’’
एक दिन गिल्मेशा न्याय माँगने वालों को दण्ड देने के इरादे से चला। इकत्रा ने देखा और सोचा-‘यही समय है कि इसे सबक सिखाया जाए।’ इकत्रा ने गिल्मेशा पर एक फूल फंेका। फूल अंगारों में बदल गया। गिल्मेशा जलने लगा। वह चिल्लाने लगा- ‘‘मुझ बचाओ। मेरा शरीर जल रहा है। मैं किसी को नहीं सताऊँगा। वचन देता हूँ।’’
इकत्रा दयालु थी। उसने गिल्मेशा पर दूसरा फूल फूेंका तो बारिश होने लगी। आग बुझ गई। गिल्मेशा की पीड़ा शांत हो गई। इतना पानी बरसा कि गिल्मेशा ठण्ड से थर-थर काँपने लगा। इकत्रा ने तीसरा फूल फेंका, तो गिल्मेशा का कांपना बन्द हो गया। ठण्ड जाती रही।
दूर खड़े लोग गिल्मेशा को ध्यान से देख रहे थे। इकत्रा के चैथे फूल से गिल्मेशा के सामने शहद की प्यालियाँ प्रकट हो गई। उसने शहद पिया, तो उसकी भूख-प्यास मिट गई! वह रोने लगा।
‘‘राजा, तुम रो क्यों रहे हो? तुम तो तलवार से भी नहीं डरते, फिर फूलों से क्यों घबराते हो?’’ एक आदमी ने पूछा।
‘‘इकत्रा देवी ने मुझे तलवार से नहीं, अपनी करूणा से वश में कर लिया है। मैं अपने किए पर शर्मिन्दा हूँ। मैंने जनता को बहुत कष्ट पहुँचाया हैं।’’
उस दिन से गिल्मेशा बिलकुल ही बदल गया। लोग उसके अत्याचारोें को भूल गए क्योंकि अब वह एक न्यायप्रिय और उदार राजा बन गया था।
गिल्मेशा में आए इस परिवर्तन को देख, देवी इकत्रा ने उस पर पाँचवाँ फूल फेंका। जैसे ही फूल ने गिल्मेशा को स्पर्श किया, वह मनुष्य से देवता में बदल गया। फूलों के रथ पर बैठाकर इकत्रा उसे आकाश में ले गई।
कहते हैं, जब बसंत आता है तो इकत्रा और गिल्मेशा धरती पर आते हैं और फूल खिलाते हैं।
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छूना है आकाश
मुझे अपनी कक्षा की सभी छात्राओं से प्यार है। मैं इन्हे पूरा समय देती हूँ। केवल कक्षा में ही नहीं, कक्षा के बाद इनके घरों में जाकर भी। मेरे दोनों बच्चों के विवाह हो गये हैं। वे दोनों यहाँ से बहुत दूर समुद्र पार रहते हैं। मेरे पति पिछले वर्ष सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं।
एक सप्ताह पहले मुझे सूचना मिली कि दीपा बहुत बीमार हैं। मैं उसे देखने उसके घर गई। पता चला कि दीपा की माँ का पिछले वर्ष स्वर्गवास हो गया था। दीपा अपनी दो बड़ी बहनों के साथ रहती है। दीपा के पिता रेलवे मंे चपरासी हैं। रेलवे से मिले एक कमरे के क्वार्टर में वे चारों रहते हैं। दीपा मेरी कक्षा की होनहार छात्रा है। दीपा की बड़ी बहन ने मुझे बताया कि पिता को बहुत चिंता है। दीपा का बुखार नहीं उतर रहा है। उसने घर की दूसरी कठिनाइयों के बारे में भी बताया। दीपा से मिलकर मैं लौट आई।
एक माह बीत गया, दीपा स्कूल नहीं आई। मैं फिर उसके घर गई। पता चला कि दीपा को अस्पताल में दाखिल किया गया है। इस बीच दीपा की बड़ी बहन ने कहीं नौकरी कर ली थी। दीपा को दिमागी बुखार बताया गया था। मैं उसे देखने अस्पताल पहुँची। दीपा ने कहा- ‘‘मैडम, अब मैं कभी स्कूल नहीं आऊँगी। मुझे पता हैं, मैं मरने वाली हूँ।’’
दीपा की बात सुनकर मेरा दिल पसीज गया। मैंने डाक्टर से पूछा तो उसने कहा-‘‘दीपा को दिमागी बुखार हैं, लेकिन कोई शक्ति है जो इसे जीवित रखे हुए है।’’
मैं दो दिन बाद दीपा से फिर मिलने गई तो मैंने कहा -‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी? मैं तुम्हें पढ़ाऊँगी और चाहोगी तो तुम्हें अपने घर ले चलूँगी।’’ दीपा चुप हो गई। उसने मुझे एक डायरी दिखाई। उसमें कुछ कविताएँ लिखी हुई थीं। आशा की कविताएँ। मैंने डायरी पढ़ी, तो दीपा को चूमे बिना न रह सकी। उसने अपनी कविताओं में आकाश की बुलंदियों को छूने की बातें लिखी थीं। मैं समझ गई, दीपा की यह रचना शक्ति ही उसे जीवित रखे हुए थी।
मैंने दीपा के पिता से उसे अपनाने की बात की। पहले उन्होंने साफ मना कर दिया कि लोग इसे गलत समझेंगे। दीपा के पिता का कहना था कि लोग कहेंगे पिता अपनी बेटियों की देखभाल नहीं कर पाया। मैंने उन्हें समझा-बुझाकर मनाने का प्रयास किया, लेकिन वह न माने। आखिर मैंने उन्हें इस बात पर राजी कर लिया कि दीपा उनके पास ही रहेगी, लेकिन मैं उसे अपना लूँगी। उसका सारा खर्च मैं उठाऊँगी। दीपा के पिता ने जब यह बात दीपा को बताई, तो वह बहुत खुश हुई।
धीरे-धीरे दीपा का बुखार उतर गया। कुछ दिन बार वह स्कूल आने लगी। बुखार के कारण अब वह उतने अंक नहीं ले पाती थी। जब मैंने उससे पूछा तो उसने जवाब दिया- ‘‘मैडम, आपके कारण मैं आज जीवित हूँ। क्या इतना काफी नहीं?’’ मुझे उसकी बात सुनकर खुशी भी हुई और हैरानी भी। मुझे दीपा का वह मुरझाया चेहरा याद आ गया, जब डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। वही दीपा आज सोच रही है कि मैंने उसे अपनाकर नया जीवन दिया है। सच तो यह था कि जीवन उसके भीतर था कविता के रूप मंे।
एक दिन दीपा ने मुझसे कहा था- ‘‘मुझे अपने पापा तथा दीदी पर बहुत दया आती थी। मुझे लगता था, मुझे भी माँ के साथ मर जाना चाहिए था। मैं खुद को एक फालतू चीज समझती थी, लेकिन आपने मुझे सहारा दिया। अब मेरे दिमाग से सारा बोझ दूर हो गया है।’’
धीरे-धीरे दीपा सामान्य हो गई। समय बीतता रहा। मैं दीपा के लिए जितना कर सकती थी, करती रही।
एक दिन दीपा अचानक मेरे घर आ गई और बोली- ‘‘मैडम रानी, आज से मैं आपकी सेवा में रहूँगी।’’ मैने उससे पूछा- ‘‘क्या तू मुझे माँ या आंटी नहीं कह सकती?’’ इस पर वह बोली - ‘‘मेरे पिता आपको मैडम रानी कहते हैं। वह कहते है कि तुम्हारी मैडम का दिल रानियों जैसा है। इसलिए मैं आपको रानी आंटी या मैडम रानी कह सकती हूँ।’’
दीपा आज बारहवीं कक्षा में है। मैं रिटायर हो चुकी हूँ। अब वह स्वयं पिता का घर छोड़कर मेरे साथ रहने आ गई है। वह जतन से मेरी देखभाल करती है। समुद्र पार गए बेटों की कभी-कभार चिट्ठी आ जाती है। पिछले छह वर्षों में दोंनो बेटे एक बार मिलने आए थे। पैसा नियमित भेज रहे है। हम तीनों का अच्छा गुजारा हो जाता है।
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बैलों की बोली
बिरजू एक मूर्तिकार था। तरह-तरह की मूर्तियाँ बनाता। देखने में ऐसी लगतीं कि अभी बोल पड़ेंगी। पूरे गाँव में लोग उसकी मूर्तियों की प्रशंसा करते। बच्चों से बिरजू को बहुत लगाव था। वह उन्हें भी तरह-तरह की चीजंे बनाना सिखाता।
यह खबर जमींदार राम सिंह तक भी पहुँची। एक दिन वह चुपचाप बिरजू के घर चले आए। उसने बनाए पशु-पक्षी, आदमी सब एक से बढ़कर एक थे। ऐसा लगता ही नहीं था कि ये मूर्तियाँ हैं।
बिरजू को उनके आने का पता चला तो वह दौड़ा आया। उसे देख राम सिंह बोले- ‘‘बिरजू, तुम्हारी बनाई मूर्तियाँ देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। पता नहीं था कि हमारे गाँव में इनता बड़ा कलाकार भी रहता है।’’ इसके बाद राम सिंह उससे बहुत देर तक बातें करते रहें।
बिरजू ने जमींदार जी को धन्यवाद दिया। जब वह जाने लगे तो उसने अपनी बनाई गणेश जी की प्रतिमा उन्हें भेंट की।
कुछ दिन बाद उन्होंने बिरजू को अपने घर बुलावा भेजा। पास ही उनकी बेटी नीलम बैठी थी। राम सिंह ने कहा - ‘‘बिरजू, मेरे एक व्यापारी मित्र सूरजमल शहर में रहते है। मेरा पत्र लेकर उनके पास चले जाओ। वह शहर के धनवान व्यक्तियों में से एक हैं। तुम्हारी मूर्तियाँ बिकवाने की व्यवस्था करा देंगे तो अच्छी आमदनी हो जाएगी।’’
बिरजू ने जमींदार को धन्यवाद दिया। उन्होंने मूर्तियाँ ले जाने के लिए अपनी बैलगाड़ी भी उसे दे दी। फिर अपनी मूर्तियाँ बैलगाड़ी में रखकर, शहर की ओर चल दिया। सूरजमल का घर ढूँढ़ने में उसे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सूरजमल में उसकी मदद की। जल्दी ही उसकी सारी मूर्तियाँ बिक गई। वह उन्हें धन्यवाद दें। बैलगाड़ी समेत घर वापस आ गया।
इस तरह उसका शहर आना-जाना शुरू हुआ। जल्दी ही उसके पास खूब धन हो गया। उधर राम सिंह भी बिरजू को पसंद करने लगे थे। उसकी कला से तो वह प्रभावित थे ही। अब उसके पास धन भी हो गया था। उसके बारे में उन्होंने पत्नी और बेटी नीलम से बात की । फिर बिरजू की राय जान, उससे अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया।
एक बार बिरजू शहर से मूर्तियाँ बेचकर लौट रहा था कि डाकुओं ने आक्रमण कर दिया। उसका सारा धन छीन लिया। कुछ दिन बाद सेठ सूरजमल का स्वर्गवास हो गया। बिरजू के जैसे बुरे दिन शुरू हो गए थे। वह लम्बे समय के लिए बीमार पड़ गया। जो धन उसने जमा किया था, वह खत्म हो गया। नई मूर्तियाँ वह बना नहीं सका। मदद के लिए वह किसी के पास जाना भी नहीं चाहता था। राम सिंह ने उसकी मदद करने की भी कोशिश की मगर उसने स्वीकार नहीं किया। जल्दी ही वह पहले जैसा फटेहाल मंे हो गया। राम सिंह को भी लगा कि शायद उन्हें नीलम के लिए दूसरा लड़का ढूँढ़ना पड़ेगा।
उन्हीं दिनों गाँव में एक आदमी आया। उसका नाम बिशन था। बिशन काफी चालाक और लालची आदमी था। एक किसान के घर जाकर उसने उससे प्रार्थना की कि वह एक रात उसे अपने यहाँ ठहरने दें। किसान ने उसे अपने यहाँ एक कोठरी में ठहरा दिया। कोठरी के पास ही पशुशाला थी। बिशन पशुओं की भाषा समझ सकता था। आधी रात बीत जाने के बाद उसे आवाज सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना। दो बैल आपस में बातचीत कर रहे थे।
एक बैल कह रहा था -‘‘दुनिया में लोग यदि इस बात को जानते होते तो कोई गरीब नहीं रहता।’’
‘‘कौन सी बात।’’- दूसरे बैल ने पूछा।
‘‘मुझे दो तोतों की बात सुनकर पता चला है कि इस शहर की पहाड़ियों के नीचे बहुत-सा धन गड़ा है। लोग उसे निकाल लें तो मालामाल हो जाये।’’-पहले बैल ने कहा।
‘‘मगर पत्थरों के नीचे गड़ा धन निकलेगा कैसे? यह तो बहुत कठिन काम है।’’ - दूसरा बैल बोला।
‘‘यही तो बता रहा हूँ कि यदि लोगों को पता हो तो वे धन निकाल सकते हैं। अमावस्या की रात को ये सारे पत्थर अपना स्थान छोड़कर नीचे घाटी में चले जाते हैं। कुछ समय बाद वे अपने स्थान पर वापस आ जाते हैं। इसी बीच इस धन को निकाला जा सकता है। मगर इस धन को वही निकाल सकता है जिसके पास पांच पत्ती वाला जामुनी रंग का फूल हो। लेकिन इसमें भी एक मुश्किल है।’’ कहता हुआ बैल चुप हो गया। फिर बोला- ‘‘मुश्किल यह कि जो व्यक्ति इस धन को निकालने की कोशिश करता है, पत्थर उसे मार डालते हैं।’’ इसके बाद बैल चुप हो गए।
बिशन को लगा कि उसके भाग्य तो खुलने ही वाले है। अगले दिन ही अमावस्या थी। सुबह उठते ही किसान से विदा लेकर वह जामुनी रंग वाला फूल ढूँढ़ने चल दिया। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सुबह से शाम हो गई। वह निराश होने लगा कि तभी उसे जामुनी फूल दिखाई दिया। पूरे दिन उसने कुछ खाया- पिया नहीं था। वह बहुत थक गया था मगर रातोंरात धनवान बनने की धुन मेें वह पहाड़ की तरफ दौड़ पड़ा।
वहाँ उसे बिरजू बैठा दिखाई दिया। वह अब कुछ ठीक हो चला था। इसीलिए छैनी-हथौड़ा लेकर आया था जिससे कोई नई मूर्ति बना सके।
बिशन ने बिरजू से पूछा-‘‘तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रहे हो?’’
‘‘मेरी बनाई मूर्तियाँ कभी बहुत पसन्द की जाती थीं लेकिन बहुत दिनों से कुछ कर नहीं सका। सोच रहा हूँ कोई नई मूर्ति बनाऊँ।’’- बिरजू ने कहा।
‘‘मैं तुम्हें धन पाने की एक तरकीब बता सकता हूँ।’’-बिशन बोला।
‘‘कौन सी तरकीब?’’-बिरजू ने पूछा तो बिशन ने सारी बात बता दी। मगर उसे यह नहीं बताया कि पत्थर जब लौटते हैं तो धन निकालने वाला व्यक्ति को जान से मार डालते हैं। बिशन की बात सुन बिरजू को उत्सुकता हुई। वे दोनों एक ओर बैठ गए। बिशन ने बिरजू से कहा कि यदि धन मिल गया, तो आधा हिस्सा वह उसे दे देगा।
चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कभी-कभी कोई जुगनू उड़ता दिखाई दे जाता। आधी रात होते-होते अचानक चारों ओर गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। ऐसा लगा जैसे भूचाल आ गया हो। सारे पत्थर इधर से उधर लुढ़कने लगे। पत्थरों के हटते ही बिशन ने अपने थैले से जामुनी फूल निकाल लिया। जल्दी ही उसे उस स्थान का पता चल गया, जहाँ धन गड़ा हुआ था। उसने बिरजू से उस जगह पर खोदने को कहा। बिरजू खोदने लगा। उसे बहुत सी मोंहरे और हीरे-मोती दिखाई दिये। वह उन्हें थैले में भरने लगा। इतना सारा धन देखकर बिशन को लालच आ गया। वह खुश भी था कि पत्थर जब लौटेंगे तो बिरजू को मार डालंेगे। वह सारा धन खुद ले जा सकेगा।
तभी बिरजू धन से भरी पोटली लेकर ऊपर आ गया। यह देख बिशन बोला- ‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? अभी तो बहुत खजाना बाकी है।’’
‘‘इतना ही बहुत है।’’-कहता बिरजू आगे बढ़ गया। बिशन को उस पर बहुत गुस्सा आया। वह बचे हुए धन को निकालने लगा कि एकाएक पत्थर लौटने लगे। बिशन ने भागने की कोशिश की लेकिन वह बच न सका।
बिरजू को दुःख था कि बिशन नहीं रहा। गाँव जाकर उसने अपने लिए घर बनाया। कलाकारों के लिए एक आश्रम बनवाया, जहाँ रहकर वे साधना कर सकते थे। राम सिंह ने यह देखा तो बहुत शर्मिन्दा हुए। बिरजू से माफी माँगी और नीलम का विवाह उससे कर दिया।
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नहीं चाहिए धन
भामाशाह मेवाड़ के महाराणा प्रताप के दीवान थे। वह जितने दानवीर थे, उतने ही कुशल योद्धा भी थे। हर कोई उन्हें चाहता था उनके साथ रहने के लिए व्याकुल थे, परन्तु भामाशाह भद्रसेन से अधिक प्रेम करते थे।
यों कहने को तो भद्रसेन केवल उनके अंगरक्षक थे, परन्तु दीवान जी जितना अपनत्व की भावना उनके साथ रखते थे, शायद उतना उनके कुटुम्बी, परिजनों को भी नसीब नहीं था। इसी कारण अन्य सेवक, अंगरक्षक, मित्र, कुटुम्बी, सभी मन ही मन भद्रसेन से ईष्र्या करते थे। उन सबको आश्चर्य होता था कि भद्रसेन में ऐसा कौन सा गुण है जो किसी में नहीं है और फिर भद्रसेन तो सुंदर भी नहीं थे। फिर भामाशाह ने उन्हें क्यों अपने मुँह लगा रखा है।
सभी परेशान थे। आखिर एक दिन उनसे रहा नहीं गया, तो सब सलाह-मशविरा कर दीवान जी के पास पहुँचे। इनमें से कुछ वृद्ध थे, तो कुछ प्रौढ़ और नवयुवक भी थे। एक वृद्ध सेवक ने साहस कर कहा- ‘‘अन्नदाता, आज्ञा हो तो हम सब आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं।’’
भामाशाह बोले- ‘‘हाँ-हाँ, निडर होकर कहो।’’
‘‘बात यह है कि भद्रसेन में ऐसी क्या विशेष योग्यता है, जिसके कारण आपने उसे अपने निकट रहने का अवसर दे रखा है। इसका कारण हमारी समझ में नहीं आया। इसलिए हम आपकी सेवा में आए है। हमारी जिज्ञासा शांत करें।’’
यह सुनकर भामाशाह पहले तो मुस्कुराए, फिर बोले- ‘‘वह प्रामाणिक है।’’ लेकिन यह प्रामाणिक क्या होता है?’ किसी की समझ में नहीं आया। भामाशाह बोले-‘ समय आने पर तुम लोग समझ जाओगे।’’
सभी अपने-अपने काम में लग गए। भद्रसेन भी अपना काम करते रहे। अपने स्वामी की सेवा में वह इतना मगन रहते कि न उन्हें भूख लगती, न प्यास। न उन्हें आराम की आवश्यकता महसूस होती और न काम करते-करते उकताहट होती। हर समय उन्हें बस अपने स्वामी के संकेत की प्रतीक्षा रहती है। भामाशाह का संकेत पाकर वह दौड़े-दौड़े आते और पलक झपकते ही काम पूर्ण कर लौट जाते। इसी तरह समय गुजर रहा था।
एक बार एक युद्ध की समाप्ति के बाद मेवाड़ के दीवान भामाशाह अपनी सांडिनी पर सवार होकर लौट रहे थे। सांडिनी पर कई बोरे स्वर्ण मुद्राओं से ठसाठस लदे हुए थे। उनके पीछे-पीछे भद्रसेन, सेवक, अंगरक्षक और सैनिक भी पैदल चले आ रहे थे। सभी सतर्क थे कि कहीं झाड़ी से निकलकर कोई दुश्मन आक्रमण न कर दें।
शाम होने को आई थी। मंजिल कुछ ही दूर थी। अचानक भामाशाह ने अपनी सांडिनी रोककर पीछे मुड़कर अपने सेवकों और सैनिकों से कहा-‘‘ साथियों, न जाने कैसे स्वर्ण मुद्राओं से भरे एक बोरे में छेद हो गया है, न जाने कितनी देर से इस बोरे से स्वर्ण मुद्राएँ पीछे गिरती आ रही हैं। लगभग तीन चैथाई स्वर्ण मुद्राएँ एकत्र कर सकते हो। जिसे जितनी मुद्राएँ मिलंेगी, वही उसका मालिक होगा। मुद्राएँ किसी से वापस नहीं ली जायेंगी।’’
यह कहकर भामाशाह ने अपनी सांडिनी को हांक दिया। सभी सैनिक और सेवक स्वर्ण मुद्राएँ एकत्र करने में लग गए। न जाने कब से मुद्राएँ गिर रही थीं, यही सोचते-सोचते सभी मुद्राएँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पीछे की ओर बढ़ते रहे।
कुछ देर बाद भामाशाह ने पीछे पलटकर देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ। भद्रसेन को छोड़कर और कोई भी सेवक या सैनिक दूर-दूर तक उन्हें नजर नहीं आया। हाँ, भद्रेसन अवश्य पसीने-पसीने हाथ में नंगी तलवार लिए दौड़ते-दौड़ते चले आ रहे थे। यह देखकर भामाशाह मुस्कुराए।
भामाशाह ने भद्रसेन से पूँछा-‘‘सभी तो मुद्राएँ एकत्र करने चले गए, तुम क्यों पीछे आ रहे हो? क्या तुम्हें मुद्राएँ नहीं चाहिए।’’
भद्रसेन हाथ जोड़ते हुए कहने लगे-‘‘अन्नदाता मैं तो एक मामूली सेवक हूँ और मेरा काम हर पल आपके साथ रहना है। यह खतरनाक इलाका है, दुश्मन का भरोसा नहीं। क्या पता कब घात लगाए बैठा दुश्मन आक्रमण कर दें? क्या पता आपको कब प्यास लग जाए? तब ऐसे में कौन आपके लिए जल लेकर आएगा? फिर आपके होते हुए मुझे स्वर्ण मुद्राओं की क्या आवश्यकता है। मेरे लिए तो आपका आशीर्वाद ही बहुत है।’’
अगले दिन सभी भामाशाह के महल में एकत्र हुए। सभी प्रसन्न थे। सबको पर्याप्त स्वर्ण मुद्राएँ मिली थीं। तभी भामाशाह बोले- ‘‘एक बार तुम लोगों ने मुझसे पूछा था, भद्रसेन में ऐसा क्या है? जिसके कारण मैं भद्रसेन को अपने निकट रखता हूँ। इसका उत्तर तुम्हें मिल गया होगा।’’
भामाशाह की बात सुनकर सभी चकित रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब भामाशाह ने पुनः कहा- ‘‘कल जब हम सब युद्ध से लौट रहे थे तब मैंने जानबूझकर एक बोरे में छेद कर दिया था। फिर मैंने तुम सबकी परीक्षा लेने के लिए कहा था कि जो जितनी मुद्राएँ एकत्र कर सकता है, कर ले। तुम सबके सब मुद्राएँ एकत्र करने में रह गए। तुम सब मेरे सेवक, अंगरक्षक और सैनिक हो। मुद्राओं के लोभ में तुम अपना कर्तव्य भूल गए। तुम यह भी भूल गए कि दुश्मन कभी भी, कहीं से भी आक्रमण कर सकता है। लेकिन भद्रसेन कर्तव्य नहीं भूले, मेरे पीछे-पीछे दौड़ते रहे।’’
कुछ रूकर भामाशाह ने फिर कहा-‘‘शायद आप लोग समझ गए होंगे कि प्रामाणिक कौन होता है।’’
भामाशाह की बातें सुनकर सभी भौचक्के रह गए। काटो तो खून नहीं। सभी मन ही मन शर्मिन्दा हुए।
तब एक वृद्ध सेवक ने हाथ जोड़कर कहा-‘‘अन्नदाता, हम सब न सिर्फ आपके अपराधी हैं, बल्कि भद्रसेन के भी अपराधी है। हम उनसे ईष्र्या करते थे लेकिन आज हमारी आँखें खुल गई।’’ यह सुन भामाशाह मुसकुरा उठे।
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गरीबा का सपना
बड़ी सी फूल पौधों की नर्सरी थी। वहीं बड़ा आलीशान घर था। बड़े-बड़े कमरे, आँगन, नौकर चाकर और सामने बड़ा खूबसूरत बगीचा। घर के निकट बस्ती थी। सड़क के एक ओर फूल भरी नर्सरी और हमारा घर था। बस्ती की तरफ खुलने वाली खिड़की खोल लेती और सामने ही रह रहे लुहार परिवार को देखा करती। पति-पत्नी और दो पुत्र।
आठ-दस वर्ष का गरीबा मेरे आकर्षण का केन्द्र रहता। वह दिन भर कभी अपने पिता की सहायता करता, कभी घर और आसपास की सफाई करता। कभी अपने छोटे भाई को खिलाता रहता। कच्ची बस्ती से अन्य लड़कों की भाँति वह लड़ते या गाली-गलौज करते कभी नजर न आता।
रोज सुबह जब मेरे बेटे को लेने स्कूल की बस आती, तो मैं गरीबा को बस के पास खड़ा पाती। धीरे-धीरे उसकी और मेरे बेटे की जान पहचान हो गई। मेरा बेटा स्कूल बस में जाता और गरीबा उसका स्कूल बैग पकड़ा देता। फिर दोनों ओर से जोरदार ‘बाय-बाय’ होती और स्कूल बस चल देती।
एक दिन गरीबा की माँ मेरे पास आई और बताया कि गरीबा कई दिनों से कह रहा था कि भैया की मम्मी से मिलकर आना। मैंने कहा- ‘‘तुम्हारा गरीबा बहुत समझदार है। तुम उसे स्कूल क्यों नहीं भेजती?’’
‘‘कहाँ से भेजें बहन जी, स्कूल की फीस और किताबों का खर्चा कहाँ से पूरा करेंगे?’’-गरीबा की माँ बोली।
कुछ दिनों बाद गरीबा भी अपनी माँ के साथ मेरे पास आया। उसने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते की। ‘‘गरीबा, आज तो तुम नई कमीज में बड़े ही अच्छे लग रहे हो।’’ मैंने कहा।
गरीबा की माँ बोली-‘‘आज गरीबा का जन्मदिन है। यह आपसे आशीर्वाद लेने आया है।’’
मैंने गरीबा को आशीर्वाद देते हुए पूछा-‘‘ गरीबा आज मैं तुम्हें कुछ उपहार देना चाहती हूँ। बोला, क्या लोगे?’’
‘‘कुछ नहीं मम्मी जी, आपका आशीर्वाद ही बहुत है। मैं भैया की तरह उसकी बस में एक दिन के लिए स्कूल जरूर जाना चाहता हूँ।’’
मैंने सोचा-गरीबा कमीज, खिलौना या टाॅफी मांगेगा, पर यह तो भैया की तरह बस में एक दिन के लिए स्कूल जाना चाहता है। उसे स्कूल भेज ही देना चाहिए। मैंने इसपर हाँ कर दी।
कुछ दिनों बाद मैं स्कूल गई और गरीबा की इच्छा प्रधानाचार्य के आगे रखी। उन्होंने कहा-‘‘कल बाल सभा का दिन है। आप कल ही गरीबा को भेज दीजिएगा।’’
घर जाते ही मैंने गरीबा को बुलावा भेजा। जब उसे पता चला कि कल ही स्कूल जाना है, तो वह घबरा कर बोला-‘‘मम्मी जी, मेरे पास कपड़े, जूते कुछ भी नहीं है।’’ तुम जन्मदिन वाली कमीज पहन लेना। मेरे पास खेल के दो जोड़ी जूते हैं, तुम उन्हें पहन लेना। ‘‘मेरा बेटा बोला।
अगले दिन सुबह ही गरीबा नए जूते और कमीज पहनकर आ गया। हर दस मिनट बाद वह समय पूछता। समय पर बस आई। दोनों बच्चे कूदकर बस में चढ़े। गरीबा ने शरमाकर पास खड़ी माँ से हाथ हिलाकर कहा-‘‘बाय-बाय माँ।’’ और बस चल दी।
बाल सभा में कई बच्चों ने भाग लिया। फिर प्रधानाचार्य ने गरीबा को बुलाया और कहा-‘‘ तुम, भी कुछ सुनाओ।’’ गरीबा ने राजस्थानी गीत गाकर सबका मन मोह लिया। तरह-तरह के पशु- पक्षियों की बोलियाँ बोलीं और बच्चों से बोलियाँ पहचानने को कहा। सभी बच्चे और अध्यापक गरीबा पर मोहित हो गए।
प्रधानाचार्य ने उसे निःशुल्क अपने स्कूल में पढ़ने को कहा। पर गरीबा ने कहा-‘‘नहीं, मैं रोज नहीं आ सकता, बाबा की मदद को भी तो कोई चाहिए। आपने मुझे एक दिन आने दिया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ। मैं वास्तव में यह देखना चाहता था कि जब बच्चे बस स्कूल आते हैं तो उन्हें कैसा लगता होगा?’’
बस की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मैं घर से बाहर निकली। बस रूकी, पहले मेरा बेटा फिर गरीबा उतरे। दोनों के चेहरे खिले थे। दोनों ने पलटकर बस की ओर देखा और हाथ हिला दिया। सभी बच्चे चिल्लाए- ‘‘गरीबा-गरीबा फिर स्कूल में आना।’’
गरीबा ने केवल हाथ हिला दिया। कहा कुछ नहीं। उसने एक नजर मुझ पर डाली। फिर वह अपने झोंपड़ी की ओर चला गया-अपने पिता के काम में हाथ बँटाने के लिए।
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चाचा के आम
पहलवान चाचा मुहल्ले के छोर पर रहते थे। उनकी उमर पचास से ऊपर थीं, मगर कद-काठी से मजबूत थे। घर में चाची के अलावा कोई था नहीं। दोनों लोगों के लिए उनके बड़े से आँगन में लगे आम, अमरूद के फल और भैंस का दूध काफी था।
चाचा के जाने के बाद उनके आँगन में बच्चों की भीड़ आ जाती। चाचा की तनी मूछों से भय खाने वाले लड़के चाची से घुले-मिले थे। इस कोने से उस कोने तक आँगन में दौड़ लगाते बच्चों को चाची कभी-कभी आम या अमरूद खाने को दे दिया करती थीं।
एक बार चाची मायके गई हुई थीं। चाचा के आँगन में सिंदूरी आम लटक रहे थे। लड़के आमों की ओर लालच भरी निगाह डालकर रह जाते थे। चाचा का स्वभाव कठोर था। लड़के जानते थे, इनसे कुछ मिलने वाला नहीं। कुछ लड़के चाचा के घर गए भी, मगर कसरत करते चाचा को देखकर उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। उलटे चाचा ने जब पूछा-‘‘कहो, कैसे?’’ लड़कों को लगा, वे उन्हें डांट रहे हैं। लड़के भगवान से मनाते थे कि चाची जल्दी लौट आएँ।
बरसात के साथ जब गदागद आम गिरने लगे, तब तो राजू का धीरज टूटने लगा। उसने धीरू और रज्जन से सलाह की।
दोपहर में चाचा के बाहर जाने पर राजू आम के पेड़ पर चढ़कर आम गिराने लगा। रज्जन ने आम इकट्ठे करके ढेरी लगानी शुरू की। धीरू दरवाजे के बाहर पहरा देने खड़ा हो गया।
चैकसी के बावजूद तीनों के दिल धड़क रहे थे। धीरू दरवाजे पर खड़ा इधर-उधर बेचैनी से निगाहें डाल रहा था। तभी गली के छोर पर चाचा आते दिखाई दिये।
उनकी कड़क आवाज सुनकर धीरू भाग खड़ा हुआ। चाचा की आवाज सुनकर राजू और रज्जन के हाथ पाँव फूल गए। राजू पेड़ से कूद पड़ा। रज्जन भी आमों को छोड़कर भागा और कमरे में टांड पर जा बैठा। राजू को कुछ न सूझा, तो कमरे के एक कोने में खड़ा हो गया।
चाचा ने घर में घुसकर देखा तो पेड़ के नीचे आमों की ढेरी लगी हुई थी और कमरे की कुंडी भी खुली थी। वह दहाड़े-‘‘इसका मतलब है किसी ने आमों पर हाथ साफ किया है। अच्छा बच्चू ठीक है।’’ तभी धीरू दरवाजे पर खड़ा था। ‘‘मगर मुझसे बचकर जाओगे कहाँ?’’-कहने के साथ ही वह अपनी लाठी उठाने के लिए कमरे की ओर बढ़े। कमरे में उन्हें एक कोने में खड़ा राजू दिखाई दिया। उन्होंने राजू को कान पकड़कर खींचा और कहा -‘‘तो यह तुम्हारी शरारत थी?’’
‘‘नहीं, नहीं चाचा। मैं चोर नहीं हूँ। मैं तो आम इकटठा कर रहा था। मुझे तो रज्जन जबरदस्ती बुला लाया था। वह देखों, ऊपर टांड पर बैठा है।’’ राजू ने पोल खोल दी।
चाचा ने राजू को छोड़ दिया। उन्होंने रज्जन को पकड़ा तो राजू भाग गया। रज्जन को नीचे उतारकर उन्होंने एक थप्पड़ जमाया, तो वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसने बताया कि यह सब राजू की ही शरारत थी। चाचा उसे पीटने को तैयार हो रहे थे, तभी चाची आ गई। उनके पीछे-पीछे संदूक उठाए धीरू आ रहा था। चाची ने चाचा के हाथ से रज्जन छुड़ाकर कहा- ‘‘तुम तो अजीब आदमी हो। हर फसल पर इन बच्चों को आम, अमरूद खाने को मिलते हैं। तुमने दिए नहीं, उलटे मारने पर उतारू हो।’’
‘‘अच्छा तो तुम्हारी यह फौज तुम्हारे इशारे पर ही चोरी करती है। अरे, आम खाने थे तो मुझसे कह भी तो सकते थे।’’- चाचा गुर्राए।
‘‘यह भी कोई कहने की बात थी। आप हमारे चाचा है। चाचा के आम क्या पराए होते हैं, जो हम पूछते।’’- धीरू मुसकुराया।
चाची के आने के बाद लड़कों को कोई खतरा नहीं था आमों की दावत का आनन्द लिया जा रहा था।